भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सोचा था बयाबान में, इक आशियाँ बनाएँ हम / महावीर शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सोचा था बयाबान में, इक आशियाँ बनाएँ हम
पीछा ना छोड़ा, आ गईं ये अपनी ही परछाइयाँ।

गुलशन से की थी दोस्ती, पर ख़ार दामन में मिले
हर कदम पर अनगिनत मिलती रही रूसवाइयाँ।

गुलशन से ये दिल भर गया, सहरा का आँचल मिल गया
मैं हूँ, तुम हो और बस अपनी ही परछाइयाँ।

आज़मा न हमको सूरज, धूप के शोले बरसा कर
ढल जाएगा तू देख कर, इश्क की गरमाइयाँ।

'अपनों' ही से इस क़दर सदमे उठाए उम्र-भर
रास है वीराना ये, बस तुम हो और तनहाइयाँ।

कहने को हैं वो हमसुखन, नश्तर चुभोने के लिए
दर-बदर फिरते रहे, है उनकी मेहरबानियाँ।

मौत जब टकराएगी, होगा न पंडित मौलवी
रो कर कहेगी 'अलविदा', मिटती हुई परछाइयाँ।