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सोच / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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क्यों मेरा दिल शाद नहीं है क्यों ख़ामोश रहा करता हूं
छोड़ो मेरी राम कहानी मैं जैसा भी हूं अच्छा हूं

मेरा दिल ग़मगीं है तो क्या ग़मगीं यह दुनिया है सारी
ये दुख तेरा है ना मेरा हम सबकी जागीर है प्यारी

तू गर मेरी भी हो जाये दुनिया के ग़म यूं ही रहेंगे
पाप के फन्दे, ज़ुल्म के बंधन अपने कहे से कट ना सकेंगे

ग़म हर हालत में मुहलिक है अपना हो या और किसी का
रोना-धोना, जी को जलाना यूं भी हमारा, यूं भी हमारा

क्यों न जहां का ग़म अपना लें बाद में सब तदबीरें सोचें
बाद में सुख के सपने देखें सपनों की ताबीरें सोचें

बे-फ़िक्रे धन-दौलतवाले ये आख़िर क्यों ख़ुश रहते हैं
इनका सुख आपस में बांटें ये भी आख़िर हम जैसे हैं

हमने माना जंग कड़ी है सर फूटेंगे, ख़ून बहेगा
ख़ून में ग़म भी बह जायेंगे हम न रहें, ग़म भी न रहेगा