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सोये हिमाद्रि को छेड़ो मत / योगेन्द्र दत्त शर्मा

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जब टूटा करती है भावुक मन की आस्था
जब संवेदन के तार बिखरने लगते हैं
तब एक लहर आंदोलित होती है भीतर
सारे कोमल विश्वास चटकने लगते हैं

जब मर्यादा का अतिक्रमण होने लगता
नैतिक मूल्यों का अवमूल्यन हो जाता है
तब कोई एक विवेक अचानक जगता है
उद्धत विनाश का हर विकार खो जाता है

जब सज्जनता, भलमनसाहत, शोषित होतीं
सौजन्य दिखाना तब कोरी कायरता है
जब तक न व्याल हुंकार मारकर लहराता
उसके भय को कोई स्वीकार न करता है

इसलिए मुलायम फूलों को मसला जाता
चुपचाप चूंकि वे हर प्रहार सह जाते हैं
कांटों को इसीलिए नरमी से छूते सब
अक्सर वे उंगली को घायल कर जाते हैं

जब तक शीशे का महल, तभी तक भय रहता
हिंसक लोगों के अनाहूत पथरावों का
जब तकन मसीहा आतताइयों से भिड़ता
तब तक ही घेरा रहता मूक तनावों का

है जहां धुंआ, आग भी वहीं है, सुनो दोस्त!
पर धुंआ बदल जाता है कुहरे में अक्सर
कुहरे में रहनाहै या भड़की ज्वाला में-
यह तो अपने-अपने चुनाव पर है निर्भर

ठहरे पानी पर जब होता आघात कहीं
तब उसके भीतर बड़वानल सर्राता है
ढह जाते हैं पल-भर से उच्छृंखल कगार
चट्टानों का चौड़ा सीना थर्राता है

सोये हिमाद्रि से छेड़छाड़ अच्छी न, दोस्त!
पिघला हिम-कण जल-प्रलय कभी बन जाता है
ठंडी धूनी से छेड़खानियां ठीक नहीं
राख में दबा शोला भी झंलसा जाता है!
-24 जनवरी, 1978