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स्वर वासन्ती / बुद्धिनाथ मिश्र

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सब्ज़परी उतरी आँगन में
फूटी गन्ध सुमन बन ।
अनजानी डाली पर कुहके
मेरा बनजारा मन ।

विकल समीर फिरे वन-वन
कुण्डल में कस्तूरी भर
कम्पित कलियों के अधरों पर
बिछे मदिर श्रम-सीकर ।
ऐसी आँधी उठी वसन्ती
लिपटी दिशा गगन से
वल्लरियाँ द्रुम से आलिंगित
स्वप्निल प्रीति सृजन से ।

किन नयनों ने क्या कर डाला
सुलगा तरु का यौवन
बिछुड़ रहा है वृन्त-वृन्त से
मेरा अलसाया तन ।

उषा रंगिनी बाँट गई
प्राची-नभ से कुंकुम जो
मानस-मानस सिमटे वे
उपजे अनुराग-कुसुम हो ।
अनहोनी कुछ हुई न
फिर क्यों भाव जगे सिहरन के ?
अर्थ नए अँखुए-से निकले
ठूँठ शब्द के तन से ।

इन्द्रधनुष के पंख लगा
क्यों राधा विचरे तृण-तृण ?
सँवर रहा यादों की फुनगी पर
जब अनब्याहा प्रण ।

दृग के कुमुद गिनें तारे
या ढूँढें शशि वह निर्मम
आग लगाए जल में
जिसकी आँखमिचौनी का क्रम ।
जग की सभी व्यथाएं संचित
इस अणु-से अंकुर में
सत्रहवर्षी उर में ।

पीकर उनकी सुरभि सलोनी
उगी मंजरी नूतन
हर मधुकण में प्रतिबिम्बित
कर्पूरी उनका आनन ।

कौन बुलाकर द्वार पूजती
वायस साँझ-सबेरे
बचा न अब यह स्नेह
जलाये पय से दिये कनेरे ।
कितने पीर-पतंगों को
उसने अन्तर में बाँधा
ले उधार उल्लास कि जिस
आँचल ने मयन अराधा ।

फहराएँ उनकी समाधि पर
कुसमायुध के केतन
खुला रहा जिनका अनन्त की ओर
सदा वातायन ।