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हमारा ज़िक्र और उनकी ज़ुबाँ तक/ परमानन्द शर्मा 'शरर'

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हमारा ज़िक्र और उनकी ज़बाँ तक
ज़मीं की बात पहुँची आसमाँ तक

न आप आए न कोई इत्तिला तक
तज़बज़ब में जिए कोई कहाँ तक

हमारे नाला-ए- फर्सूदा-पा की
रसाई है तुम्हारे आस्ताँ तक

गिला हम से शिकायत दूसरों से
हमारा नाम होता है कहाँ तक

हमें यों ख़ाक का पुतला न समझो
तसल्लत है हमारा आसमाँ तक

वो आए बैठे उठ के चल दिए भी
न हर्फ़े-मुद्दआ आया ज़बाँ तक

किसी की ख़ाके-पा की मेह्रबानी
हमारी दस्तरस है दो जहाँ तक

‘शरर’ क्या ख़ैर हो उस कारवाँ की
जहाँ रहज़न बना हो पासबाँ तक