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हम कब पहचानते हैं ईश्वर को ! / राजेश्वर वशिष्ठ

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एक स्त्री गरमी और उमस में
पसीने से तर-बतर
निकलती है किचन से बाहर

खोलती है घर का द्वार
स्वागत करती है
अचानक आए मेहमानों का
अक्सर ऐसे ही मौसम में आते हैं
पति के रिश्तेदार

बैडरूम के ए० सी० में चल रही है
देश की राजनीति पर बहस
कोई नहीं कहता कि उसे लगी है भूख
पर सब कर रहे हैं भोजन का इन्तज़ार
अनमनी सी उठती है स्त्री
उसे फिर से घुसना होगा किचन में

चेहरे पर नकली मुस्कान लपेट
वह फिर से जलाती है गैस-स्टोव
प्रेशर-कुकर बजाने लगता है सीटी
खौलते तेल में फूलने लगती हैं पूड़ियाँ
अब बहस राजनीति से
भोजन की तारीफ़ तक चली आती है
स्त्री बन जाती है अन्नपूर्णा

आप जानते हैं इस स्त्री को ?

हम कब पहचानते हैं ईश्वर को !