भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम कहें वो सुनें या फिर वो कहें हम सुनें / नईम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम कहें वो सुनें या फिर वो कहें हम सुनें,
होगा देखना! जब पड़ेंगे दिन छिटक कर दूर-
आक्रमणों प्रत्याक्रमणों हो भले फिर चूर,
तरद्दुद में पड़े मायाभारते सिर धुनें।

सामयिक हैं सभी समझौते। समझते हुए-
भी विवश हैं; किन्तु करने के लिए बेसाख़्ता।
गए दिन जब हम उड़ाते थे मज़े से फ़ाख़्ता।
सिए बैठे घाव अपने हम कसकते हुए।

रहें पछताते रहें हम औ जनम भर जिएँ-
जब तक! भले उड़ जाए हमारे हाथ से,
बाज तोते, कबूतर दहशतजदा साथ से।
ग़मजदा हम आँसुओं को भला कब तक पिएँ?

आप बीती से नहीं कम हैं ये परबीतीं,
कथा बन दोनों यहाँ रह जाएंगी जीतीं।