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हम धुएँ में जब ज़रा उतरे, धुआँ खुलने लगा / राजेश रेड्डी
Kavita Kosh से
हम धुएँ में जब ज़रा उतरे, धुआँ खुलने लगा ।
राख में मलबा कुरेदा तो मकाँ खुलने लगा ।
जैसे-जैसे उस तआल्लुक़ का गुमाँ खुलने लगा,
क्या नहीं था और क्या था दरमियाँ खुलने लगा ।
हमने तो उसके इक आँसू को ज़रा खोला था बस,
फिर तो अपने आप ही वो बेज़ुबाँ खुलने लगा ।
नाउमीदी, अश्क़, तनहाई, उदासी, हसरतें,
रफ़्ता-रफ़्ता ज़िन्दगी का हर निशाँ खुलने लगा ।
हमने जब छोड़ा उसे दैरो-हरम में ढूँढ़ना,
बन्द पलकों में हमारी लामकाँ खुलने लगा ।
हमने अपनी ज़ात से बाहर रखा पहला क़दम,
और हमारे सामने सारा जहाँ खुलने लगा ।
जैसे-जैसे दोस्तों से दोस्ती गहरी हुई,
पीठ के हर ज़ख्म का इक-इक निशाँ खुलने लगा ।
उम्र ढलने पर समझ में ज़िन्दगी आने लगी,
जब सिमटने लग गए पर, आसमाँ खुलने लगा ।