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हम ने पौधे से कहा / अज्ञेय

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हमने पौधे से कहा : मित्र, हमें फूल दो।
उस की फुनगी से चिनगियाँ दो फूटीं।
डाली से उस ने फुलझड़ी छोड़ दी :
हम मुग्ध देखते रहे कि कब कली फूटे-
कि कायश्री उस की समीरण में झूम गयी,
हमें जान पड़ा, कहीं गन्ध की फुहारें झर रही हैं
और देखा सहसा :
लच्छा-सा डोंडियों का, गुच्छा एक फूल का
हम मुग्ध ताका किये।

किन्तु हम जो देखते थे क्या वह निर्माण था?
गुच्छे हम नोच लें परन्तु वही क्या सृष्टि है?
मिट्टी के नीचे, जहाँ एक बुदबुदाता अन्धकार था
कीड़े आँख-ओट कुलबुलाते थे
रिसता था जिस की नस-नस में
मैल किस-किस का और कब-कब का
(काल की तो सीमा नहीं, देश की अगर हो
हम नहीं जानते :
और मैल दोनों का-
सीमाहीन काल का, व्यासहीन देश का-
माटी में रिसता है, मिसता है,
सोखता ही रहता है)-
मिट्टी के नीचे बुदबुदाते अन्धकार में
पौधे की जड़ क्रियमाण थी :
पौधे का हाथ? आँख? जीभ? त्वचा?
पौधे का हाथ? प्राण? चेतना?
मिट्टी के नीचे क्रियमाण थी :
पौधे की जड़ : सृष्टि-शक्ति : आद्य मातृका।

ऊपर वह हँसता-सिहरता था
और हम देख-देख खिलते विहरते थे
किन्तु वह अनुपल, अनुक्षण, और और गहरे
टोहता था बुदबुदाते उस अन्धकार में :
सड़ा दे दो, गला दे दो, पचा दे दो,
कचरा दो राख दो अशुच दो उच्छिष्ट दो-
वह तो है सृजन-रत : उसे सब रस है।
उसे सब रस है
और इस हेतु (हम जानें या न जानें यही
हमें सारे फूल हैं,
घास-फूस, डाल-पात, लता-क्षुप,
ओषधि-वनस्पति, द्रुमाली, वन-वीथियाँ।
रूप-सत्य, रस-सत्य, गन्ध-सत्य,
रूप-शिव।

मित्र, हमें फूल दो-
हमने पौधे से कहा :
बन्धु, हमें काव्य दो।
किन्तु तुम (नभचारी!) मिट्टी की ओर मत देखना,
किन्तु तुम (गतिशील!) जड़ें मत छोडऩा,
किन्तु तुम (प्रकाश-सुत!) टोहना न कभी अन्धकार को,
किन्तु तुम (रससिद्ध!) कर्दम से नाता मत जोडऩा,
किन्तु तुम (स्वयम्भू!) पुष्टि की अपेक्षा मत रखना!
गहरे न जाना कहीं, आँचल बचाना सदा, दामन हमेशा पाक रखना,
पंकज-सा पंक में, कंज-पत्र में सलिल-सा
तुहिन की बूँद में प्रकम्प हेम-शिरा-सा असम्पृक्त रहना।
धाक रखना।
लाज रखना, नाम रखना, नाक रखना।

बन्धु, हमें काव्य दो,
सुन्दर दो, शिव दो, सार-सत्य दो,
किन्तु किन्तु
किन्तु किन्तु
किन्तु किन्तु-
हमने कवि से कहा।

दिल्ली, 23 नवम्बर, 1954