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हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
दुश्नाम<ref>गाली</ref>! तो नहीं है ये इकराम<ref>कृपा</ref> ही तो है

करते हैं जिस पे ता'न<ref>व्यंग्य</ref>, कोई जुर्म तो नहीं
शौक़े-फ़ुज़ूलो-उल्फ़ते-नाकाम ही तो है

दिल मुद्दई के हर्फ़े-मलामत<ref>निंदा का शब्द</ref> से शाद है
ऐ जाने-जाँ ये हर्फ़ तिरा नाम ही तो है

दिल ना-उम्मीद तो नहीं, नाकाम ही तो है
लंबी है ग़म की शाम, मगर शाम ही तो है

दस्ते-फ़लक<ref>आसमान का हाथ</ref> में, गर्दिशे-तक़दीर तो नहीं
दस्ते-फ़लक में, गर्दिशे-अय्याम ही तो है

आख़िर तो एक रोज़ करेगी नज़र वफ़ा
वो यारे-ख़ुशख़साल<ref>अच्छे गुणों वाला यार</ref> सरे-बाम ही तो है

भीगी है रात 'फ़ैज़' ग़ज़ल इब्तिदा करो
वक़्ते-सरोद<ref>गाने का वक़्त</ref>, दर्द का हंगाम ही तो है

मांटगोमरी जेल, 9 मार्च 1954

शब्दार्थ
<references/>