भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम प्रतिकों को बचाते रह गये / राघवेन्द्र शुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ अंह का गान गाते रह गए।
कुछ सहमते औ' लजाते रह गए।
सभ्यता के वस्त्र चिथड़े हो गए हैं,
हम प्रतीकों को बचाते रह गए।

वेद मंत्रों की धुनों पर धूर्तता
सज्जनों का होम करती जा रही है,
शून्य मूंदे नैन अपने पथ चले
मूक धरती नृत्य करती जा रही है।

तोड़ अंतस के शिवालय हम सभी
नभ-देवताओं को बुलाते रह गए।

नीड़ के प्यासे परिंदों को लगा
इस बार बादल से गिरेंगे तृण नए।
इस बार हमने आंच बदली है नई
इस बार नभ में सिंधु-जल-जत्थे नए।

बूँद गिरना तो रहा, गरजे जलद,
हम नीड़ के सुर बड़बड़ाते रह गए।

यूं मना है जश्न उनकी जीत का,
आह के स्वर दब गए हैं शोर में।
कौन सा षड्यंत्र खेला चांद ने
एक भी तारा न आया भोर में।

घुल गई हर सांस में है रातरानी
हम सुबह के गीत गाते रह गए।

कर्म से ज्यादा जरूरी है प्रदर्शन,
कह रहे श्रीकृष्ण अब के पार्थ से।
धर्म की भाषा ने बदला व्याकरण,
नीति अपने अर्थ लेती स्वार्थ से।

सत्य है नेपथ्य में बंधक बना,
मंच बस मिथकों के नाते रह गए।

हम निरन्तर सभ्य होते जा रहे हैं
छोड़कर सिद्धांत सारे सभ्यता के।
रूचते हमको कहाँ हैं अब यथार्थ
हम समर्थक हैं तो केवल भव्यता के।

यूं गिरे उनके हवा-निर्मित महल
कान अब तक सनसनाते रह गए।

जड़ लिए हैं स्वप्न उन्होंने हमारे
राजसिंहासन के पायों में कपट से।
छोड़कर मंझधार में मांझी हमारे
खे रहे हैं नाव बैठे सिंधु-तट से।

कर लिया अनुबंध रजनी से सुबह ने
हम रात भर दीपक जलाते रह गए।