भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम मजदूर होते हैं / भारतेन्दु मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रोटियों सी गोल है दुनिया
और हम मज़दूर होते हैं
देह अपनी बाँटते हैं हम
और थककर चूर होते हैं ।

पढ़ न पाए हम गरीबी में
बढ़ न पाए बदनसीबी में
शोषकों की दृष्टि में तो हम
नाक का नासूर होते हैं ।

गालियाँ भी लोग देते हैं
हाथ, बस, हम जोड़ लेते हैं
क्या पता तुमको कि हम भी
किस कदर मजबूर होते हैं ।

जब मशीनों पर उतरते हैं
काम जोखिम भरे करते हैं
मौत की ही चीख सुनते हम
ज़िन्दगी से दूर होते हैं ।

(पारो-18/6/1989)