भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हरी घास का बल्लम / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हरी घास का बल्लम

गड़ा भूमि पर
सजग खड़ा है

छह अंगुल से नहीं बड़ा है

मन होता है

मैं उखाड़ कर इसे मार दूँ

कुण्ठा को गढ़ में पछाड़ दूँ

जहाँ गड़े हैं भूले मुरदे

वहाँ गाड़ दूँ