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हल्दी पीसने वालियाँ / ये लहरें घेर लेती हैं / मधु शर्मा

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पीढ़े पर बैठी वे
पीसती हैं हल्दी
चक्की के हत्थे पर हाथ धरे
घुमाती हैं पाट-
रूखी धुनों के साथ भी
टूट जाते हैं कुछ रुखड़े दुख

पुरानी मीठी-सी लोकधुन कोई
गुनगुनाती हैं वे धीमे से-
उनकी हँसती हुई उदासी
छिप जाती उनके रंगहीन लिबासों में,
एक अजब संयोजन के बीच
महीन पिस रही हल्दी से
भर जाता
चक्की का
पुरखों वाला गरड़
जो अब लोहे का है-
असल में; घर है चक्की का

हल्दी पीसने वालियाँ
इसी तरह चलाया करती हैं जीवन
पिसती हुई
हल्दी के साथ
साँझ तलक।