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हवा खराब है / शैलजा सक्सेना

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शहर की हवा,
गंधाती है धूल से, मसालों से, मिठाइयों से, गरीबी से..!

चीखती है हज़ारों आवाज़ों में..
ठेलों की, भिखामंगों की, बाबुओं की,
कार, रिक्शा, सायकिल, मंदिर, मस्ज़िद, गुरुद्वारे के भोंपुओं में।

सब होड़ में हैं कि
हवाओं पर किसका अधिकार हो सब से ज़्यादा!

हवा,
घबरा कर छुप जाना चाहती है जंगलों में,
पर…. वे तो कट चुके हैं!

हवा,
घबरा कर छुप जाना चाहती है पहाड़ों और हवेलियों के पीछे,
पर….. वे तो ढ़ह चुके है!

बौराई सी घूमती है हवा आसरे को
पर कट-फट कर रह जाती है हज़ारों आवाज़ों में!
गंधा कर रह जाती है
अनचाही गंधों में..!

और आदमी कहता है
“हवा खराब है आजकल की”॥