हाँ, मैं काला, अर्थात काला, अर्थात रंग नहीं / मनोज बोगटी
हाँ, मैं काला ।
अर्थात
काला ।
अर्थात रंग नहीं ।
काले को छूने से ही कुछ मैला नहीं हो जाता है
जैसे सफ़ेद की छुअन से कुछ साफ़ नहीं हो जाता ।
अक्षर भी काला होता है
हब्शी जैसे अक्षरों से लिखा जाता है तुम्हारा नाम ।
तुम्हारी खाल में आबाद होने वाला घाव
नहीं बख़्शता है मेरी खाल को ।
तुम सफ़ेद
मैं काला ।
मेरी नाटी नाक
मेरे जितनी ही ऊँची है ।
या वो उतना ही ऊँची है
जितनी कि तुम्हारी नाक लम्बी है ।
मेरा क़द
जितना छोटा है
उतना ही छोटा है क़दम भी
और मैं तुम्हारे साथ ही चल सकता हूँ
तुमसे भी ज़्यादा चल सकता हूँ ।
पर रंग से चला नहीं जाता ।
मैं तो रंग से भी
बहुत गोरा हूँ ।
बहुत काला हूँ ।
नहीं समझे ना, इतनी देर में भी तुम मेरी बात को ?
मिट्टी का रंग नहीं है
पानी का रंग नहीं है
आग का रंग नहीं है
हवा का रंग नहीं है
ध्वनि का रंग नहीं है
जिस तरह से
सत्य का रंग नहीं
धर्म का रंग नहीं
शान्ति का रंग नहीं
प्रेम का रंग नहीं
अहिंसा का रंग नहीं ।
आख़िर कौन हो तुम, जो रंग की बात करते हो?
हाँ, मैं काला ।
अर्थात
काला ।
अर्थात रंग नहीं ।