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हां ना के बीच / प्रेमशंकर रघुवंशी

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हाँ ना के बीच
फँसा विचार
अविकसित कली जैसा
अपने ही वृत्त पर सूखता है

हाँ ना के बीच
फँसी इंसानियत
हर जगह निस्तेज
और बाँझ होती है

हाँ ना के बीच
फँसा मौसम
हर जगह
पतझर-सा खड़खड़ाता है

हाँ ना के बीच
फँसा सृजन
हर जगह
रेत ही रेत बिछाता है।