भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाथ की लकीरें / मुकेश कुमार सिन्हा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये हाथ की लकीरें
छपी होती है
मकड़े के जालों जैसी
हथेली पर
जिसमे रेखाएं
होती है अहम्
जिनके मायने
होतें हैं....हर बार
अलग अलग
एक छोटा सा क्रास
एक नन्हा सा तारा
बदल देता है
उनके अर्थ
या फिर
लकीरों का
मोटापा या दुबलापन
भी बढ़ा देती है
हमारी परेशानी

चन्द्र बुध
शुक्र बृहस्पति
जैसे ग्रहों को
इन जालों में समेटे
हम लड़ते हैं...
ढूंढते हैं खुशियाँ
इन लकीरों में ही
कभी चमकता दिखता
भाग्योदय
तो कभी...प्रकोप
शनि दशा का!!!
और हम
रह जाते हैं....
मकड़े की तरह
फंसे इन लकीरों में...
इन जालों की तरह
उकेरी हुए लकीरों
को अपने वश में
करने हेतु
हम करते हैं धारण
लाल हरे पीले
चमकदार
महंगे-सस्ते पत्थर
अपनी औकात को देखते हुए
बंध के
रह जाते हैं...
पर...किन्तु परन्तु में
हो जाते हैं
लकीर के फ़कीर


वहीँ जिसने ढूढी
एक और राह....
तो फिर
जहाँ चाह वहीँ राह...
इन लकीरों से
भरी हथेलियों को
भींच लिया
मुठी में
एक इमानदार
कोशिश....बस इतना ही
शायद बन जाय शहंशाह
तकदीर से ऊपर
उठ कर
मेहनत का बादशाह...!!