भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हाथ / महेश वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अभी इस पर धूल की पतली परत है लेकिन
यह मेरा हाथ है जिसे देखता हूँ बार बार
डूबकर जीवन में।

यहीं कहीं हैं भाग्य और यश की पुरातन नदियाँ
कोई त्रिभुज घेरे हुए भविष्य का वैभव,
समुद्र यात्राओं के अनाम विवरण,
किसी चाँद का अपरिचित पठार,
कोई रेखा जिसमें छिपाकर रखे गए हैं
आयु और स्वास्थ्य के रहस्य,
गोपन प्रेम की छोटी-छोटी पगडंडियाँ,
कोई सुरक्षित दांपत्य का पर्वत
भूत भविष्य की कोई दुर्घटना-किसी
पांडुलिपि की लिखावटें -
इसे देखता हूँ एक अधूरे सपने की तरह-
समय के आखिरी छोर से।
प्रेम कविताओं की तरह के स्पंदित शब्द
जो लिखे जाने थे इससे, इसे बनाना था कोई चित्र -
अभी बाकि हो प्रेम का कोई अछूता स्पर्श।
इसे बढ़ना था कितनी दिशाओं में मैत्री के लिए
अभी दबाई जानी थी बंदूक की लिबलिबि,

अभी देना था ह्रदय का उष्म संदेश।
मेरी देह से जुड़ा यह हाथ है मेरा
मेरा प्रिय, कितना अपरिचित।