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हाहाकार / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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वज्री के अति प्रबल वज्र-सम
वज्र-हृदय-जन का है काल;
दंडनीय जन के दंडन-हित
है अंतक का दंड कराल।
शूल-प्रदायक प्राणिपुंज को
है शूली का तीव्र त्रिशूल;
चक्र-पाणि के चक्र-तुल्य है
कलि-चक्रांत-निपुण प्रतिकूल।
रक्त-पिपासू रक्त-पान-हित
है काली आरक्त-कृपाण;
लोक-निधान-रत निधान-हेतु है
निधानंजय पिनाक का बाण।
भूतों को सभीत करने को
है भैरव का भैरव नाद;
उसके लिए अशेष शेष फण
जिसको है विशेष उन्माद।
गरल-मान का अगरलकारी
गरल-कंठ का कंठ महान;
दहन-निपुण दाहन निमित्त है
हर-तृतीय-दृग- दहन-समान।
प्रलय-काल के कुपित भानु-सम
बन-बनकर विकराल-अपार;
दग्ध बनाता है वसुधा को
व्यथित हृदय का हाहाकार।