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हुस्न का एक आह ने चेहरा निढाल कर दिया / 'फना' निज़ामी कानपुरी

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हुस्न का एक आह ने चेहरा निढाल कर दिया
आज तो ऐ दिल-ए-हज़ीं तू ने कमाल कर दिया

सहता रहा जफ़ा-ए-दोस्त कहता रहा अदा-ए-दोस्त
मेरे ख़ुलूस ने मेरा जीना मुहाल कर दिया

मय-कदे में है क़हत-ए-मय या कोई और बात है
पीर-ए-मुग़ाँ ने क्यूँ मुझे जाम सँभाल कर दिया

जितने चमन-परस्त थे साया-ए-गुल में मस्त थे
अपना उरूज-ए-गुलिस्ताँ मज़्र-ए-ज़वाल कर दिया

ख़ुद मेरा सोज़-ए-जान-गुदाज़ छेड़ सका न दिल का साज़
आप की इक निगाह ने साहब-ए-हाल कर दिया

बज़्म में सारे अहल-ए-होश उन के सितम पे थे ख़ामोश
एक जुनूँ-परस्त ने उठ के सवाल कर दिया

लुत्फ़-ए-फ़िराक़-ए-यार ने लज़्ज़त-ए-इतिज़ार ने
दूर दिल ओ निगाह से शौक़-ए-विसाल कर दिया

सुन के बयान-ए-मय-कदा देख के शान-ए-मय-कदा
शैख़-ए-हरम ने भी ‘फ़ना’ मय को हलाल कर दिया