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हे मेरी तुम / विपिन कुमार शर्मा

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अनेक दुखों के भार से
बेजार हुई जा रही, इन दिनों
"हे मेरी तुम !"
मैं जानना चाहता हूँ
की हज़ार मुश्किलों के बीच
एकदम से मुस्करा पड़ने की
मज़बूरी क्या है ?

मैंने तुमसे, तुम्हारी
हँसी तो नहीं मांगी थी
यह और बात, कि
लाचारी भी नहीं मांगी थी
ऐसा नहीं कि तुमसे सुख न चाहा
शायद ! ऐसा भी नहीं
कि तुमने मेरे सुख को समझा ही नहीं !

ख़ुद को टुकड़ा-टुकड़ा करके
बारी-बारी देती गईं तुम
और मैं संकोचवश यह न कह सका
कि मैं तुम्हें पूरा चाहता हूँ
न ही यह, कि मैं
तुम्हें टुकड़े-टुकड़े होते नहीं देख सकता।