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है ग़ैब की सदा जो सुनाई न दे मुझे / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

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है ग़ैब की सदा जो सुनाई न दे मुझे
वो सामने है और दिखाई न दे मुझे

तेरे किताबे रुख़ पे जो अश्क़ों ने लिख दिया
नज़रों से पढ़ चुका हूँ सफाई न दे मुझे

सौदा दिलों का होता नहीं ज़र से मेरी जाँ
ये दिल का कारोबार है पाई न दे मुझे

इज़हारे इश्क़ करके कहाँ खो गया है तू
अब आ जा, और ज़हरे जुदाई न दे मुझे

रुकता नहीं है अश्के रवानी का सिलसिला
ग़म पीने की ख़ुदारा दवाई न दे मुझे

यूं बेख़बर वजूद के एहसास से हुआ
"अपने ही दिल की बात सुनाई न दे मुझे"

केवल ज़मीनों ज़र नहीं माँ-बाप भी बटे
ऐसे 'रक़ीब' भाई से, भाई न दे मुझे