भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हो कहाँ छिपाये गात देवता मेरे / प्रेम नारायण 'पंकिल'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हो कहाँ छिपाये गात देवता मेरे।
क्यों हो न पा रही बात देवता मेरे।

क्या तेरा होकर भी घूँमू दर-दर मारा मारा।
सुना न तेरे जन का धूमिल रहता भाग्य-सितारा।
क्या मैं ही तुम्हें न ज्ञात देवता मेरे -
हो कहाँ छिपाये ---------------।।1।।

जीवन भर करता ही आया गाढ़ी पाप कमाई।
अब भी नयन नहीं खुलते करूणा वरूणालय साँई।
घेरे विकार की रात देवता मेरे --
हो कहाँ छिपाये -----------------।।2।।

हमें भोग डाला भोगों ने माया ने भरमाया।
आखिर मिट्टी में मिल जायेगी दुर्लभ नर काया।
क्यों हो न पार ही बात देवता मेरे -
हो कहाँ छिपाये---------------- ।।3।।

नहीं शेष-शारद कह पाते तेरी कृपा कहानी ।
सच में तुम समान बस तुम्हीं हो प्रभु अवढ़रदानी
दिखला दो पद-जलपात देवता मेरे -
हो कहाँ छिपाये ----------------।।4।।

कृपा निधान पास क्या नेरे कौन आप से चोरी।
हथ जोरी कर दिखा रहा ‘पंकिल’ अपनी कमजोरी।
भेजो निज भक्ति-प्रभात देवता मेरे -
हो कहाँ छिपाये --------------।।5।।