भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

‘नट’ / चंद्र रेखा ढडवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 नट

कुछ तुम्हारे सम्मुख
मंच पर हाथ पसिर जुबान चलाते
तो कुछ नेपथ्य में में सिर मुँह रँगे
मंच पर आने के लिए तत्पर
पहले से आख़िरी तक सब के सब नट...
तुम्हारी इच्छा या विवश्ता तुम्हारी
तुम मान लो इन्हीं में से
सूत्राधर्र किसी एक को
तो खिलंदड़ विदूषक किसी दूसरे के
तुम देखो दुर्योधन का दंभ एक में
तो अर्जुन की भक्ति किसी दूसरे में
सब के सब एक ही तम्बू तले
एक-सी दाल भाजी
एक -सी बटलोही में राँधते पकाते
मेरी तुम्हारी हथेलियों से फिसले सिक्कों की
बराबर बराबर ढेरियाँ लगाते
डेरे गाड़ते
डेरे उखाड़ते नट!