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...तो जानूँ / जानकीवल्लभ शास्त्री

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तीखे काँटों को
फूलों का शृंगार बना दो तो जानूँ।

वीरान ज़िन्दगी की ख़ातिर
कोई न कभी मरता होगा,
तपती सांसों के लिए नहीं
यौवन-मरु तप करता होगा,
फैली-फैली यह रेत।
ज़िन्दगी है या निर्मल उज्ज्वलता?
निर्जल उज्ज्वलता को जलधर,
जलधार बना दो तॊ जानूँ।

मैं छाँह-छाँह चलता आया
अकलुष प्रकाश की आशा में,
गुमसुम-गुमसुम जलता आया :
उजलूँ तो लौ की भाषा में।
औंधा आकाश टँगा सर पर,
डाला पड़ाव सन्नाटे ने,
ठहरे गहरे सन्नाटे को
झंँकार बना दो तो जानूँ।