भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

... कैसा, न जानूँ ! / विंदा करंदीकर / रेखा देशपाण्डे

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी कभी तो मैं तिनके-सा ओछा
कभी बढ़ते-बढ़ते आसमाँ समेटूँ
कभी विश्व को चूमने बढ़ जाऊँ
कभी आप ही को अपने हाथों सरापूँ ।

कभी माँगूँ सत् तो कभी स्वप्न माँगूँ
कभी छोड़ पीछे ज़माने को, दौड़ूँ
कभी मैं अमृत की वर्षा कराऊँ
मृत्यु की भीख भोली कभी माँग बैठूँ ।

कभी हीन-दीन मैं, बहुत बेसहारा
कभी अपने आलोक से जगमगाता
कभी गरज उठता हूँ सागर के जैसा
कभी अपनी ही बात से काँप जाता ।

कभी ढूँढ़ता अपने आप को सभी में
कभी अपने आप में सभी को हूँ पाता
जहाँ सूर्य-तारे हैं अणुरूप होते,
वहीं पर मैं ख़ुद को अनन्त से हूँ नापता ।

ज़रा-सी बात पर अहंकार होता
ख़ुदगर्ज यादों का पीछा न छूटता
कभी स्वाँग अपना मैं सच मान बैठूँ
कभी सत्य को स्वाँग मैं मान लेता ।

कभी संयमी, संशयात्मा, विरागी
कभी आततायी, लिए दुरभिमान मैं
ऐसा मैं...वैसा मैं...कैसा, न जानूँ
अपने ही घर, दूर का मेहमान मैं ।

मराठी भाषा से अनुवाद : रेखा देशपाण्डे