भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उसने आईने रख दिए हर सू / राजीव भरोल
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:34, 1 फ़रवरी 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजीव भरोल }} Category:ग़ज़ल <poem> मैंने च...' के साथ नया पन्ना बनाया)
मैंने चाहा था सच दिखे हर सू,
उसने आईने रख दिए हर सू।
ख्वाहिशों को हवस के सहरा में,
धूप के काफिले मिले हर सू।
काँच के घर हैं, टूट सकते हैं,
यूँ न पत्थर उछालिए हर सू।
फूल भी नफरतों के मौसम में,
खार बन कर बिखर गए हर सू।
लोग जल्दी में किसलिए हैं यहाँ,
हड़बड़ाहट सी क्यों दिखे हर सू?