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आँखें तरस रहीं मेरी दीदारे-यार को / कविता सिंह

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आँखें तरस रहीं मेरी दीदारे-यार को।
मिलता नहीं करार दिले-बेकरार को॥

एे सोज़े-हिज्रां आज ज़रा देर तक ठहर-
तन्हा न छोड़ देख ग़मों के दयार को।

अबके दिए हैं ज़ख़्म हज़ारों बहार ने-
ले के कहाँ मैं जाऊँ दिले-दागदार को।

किस शहर में तलाश करूँ जाऊँ मैं कहाँ-
ढूँढूँ कहाँ पर जाके अपने खोए प्यार को।

ज़ालिम को मुझ पर आज भी आया नहीं रहम-
ठोकर से उसने मेरी उड़ाया मज़ार को।

दैरो-हरम में ढूँढता है अब ख़ुदा को तू-
भूला हुआ है रोज़े अज़ल के क़रार को।

मरहम लगा रहा है वह आकर के एे 'वफ़ा' -
कह दो कि आने दे अभी ज़ख़्मे-बहार को।