भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नक़ल देखना क्या असल जानता हूँ / सूर्यपाल सिंह

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:20, 11 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सूर्यपाल सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नक़ल देखना क्या असल जानता हूँ।
चढ़े रंग में हो विकल जानता हूँ।

हुआ जो षहर बीच दंगा यहाँ कल,
रहा कौन मुस्का निकल जानता हूँ।

निकल धूप आए कुहासा कटेगा,
मिटे षीत दुश्कर सबल जानता हूँ।

अभी आज सहला रहा पांव तलवा,
वही पूछता है न कल जानता हूँ।

अकेला हुआ आदमी आज बेष़क,
न बेपर हुआ एक पल जानता हूँ।