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ख़्वाहिशों के हिसार से निकलो / फ़ज़ल ताबिश

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ख़्वाहिशों के हिसार से निकलो
जलती सड़कों पे नंग पाँव फिरो

रात को फिर निगल गया सूरज
शाम तक फिर इधर-उधर भटको

शर्म पेशानियों पे बैठी है
घर से निकलो तो सर झुकाए रहो

माँगने से हुआ है वो ख़ुद-सर
कुछ दिनों में कुछ न माँग कर देखो

जिस से मिलते हो काम होता है
बे-ग़रज़ भी कभी किसी से मिलो

दर-ब-दर ख़ाक उड़ाई है दिन भर
घर भी जाना है हाथ मुँह धो लो