तृतीय प्रश्न / भाग २ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
उदान वायु, उर्ध्व गति की, सुषुम्ना नाड़ी और है,
ले जाती प्राणी को पुण्य कर्मों से, पुण्य लोक की ओर है।
पाप कर्मों से, पाप योनि व् पाप पुण्यों के योग से,
मिलती हैं मानव योनियों, पुनि जन्म कर्मों के भोग से॥ [ ७ ]
आदित्य निश्चय ही सभी का, बाह्य प्राणाधार है,
इन्द्रियों व प्राणों पर रवि की कृपा तो अपार है।
अन्तरिक्ष ही समान वायु व्यान बाह्य स्वरुप है,
वायु अपान को धरा स्थित करता देव अनूप है॥ [ ८ ]
आदित्य अग्नि का बाह्य अति जो तेजोमय उष्णत्व है,
है बाह्य रूप उदान का व् ऊष्मा में स्थिरत्व है।
तन से जिसके उदान वायु का शेष हो व् गमन हो,
मन में विलोपित इन्द्रियों के साथ पुनि-पुनि जनम हो॥ [ ९ ]
अन्तिम क्षणों में आत्मा का जैसा भी संकल्प हो,
अनुसार चिंतन के ही उसका जन्म हो और कल्प हो।
होती है स्थित मुख्य प्राण में, आत्मा की गति सही,
संकल्प के अनुसार मिलते जन्म उसको लघु मही॥ [ १० ]
संतान वंश परम्परा उसकी कदापि न क्षीण हो,
मही प्राण तत्व के मर्म में, प्राणी जो पूर्ण प्रवीण हो।
जीवन हो उसका सार्थक, हो अमर, न फ़िर जन्म हो,
चिंतन अचिन्त्य का जो करे, अक्षुण्य उसके पुण्य हो॥ [ ११ ]
जो प्राण की उत्पत्ति, आगम और व्यापक तत्व से,
हैं विज्ञ वे ही आप्लावित, ब्रह्म के अमृतत्व से।
आध्यात्मिक और आधिभौतिक, पाँच भेदों के मर्म से,
जो विज्ञ, विज्ञ, अविज्ञ के अनभिज्ञ अद्भुत मर्म से॥ [ १२ ]