अथ गार्ग्यः सौर्यायणी ऋषि ने, पूछा मुनि पिप्लाद से,
देवता किम सोये जागे, भोगे किस आल्हाद से।
मानव शरीर में स्वप्न दृष्टा, कौन किसमें लीन है,
सम सर्व भाव से देवता, किसमें कहाँ तल्लीन हैं॥ [ १ ]
हे गार्ग्य ज्यों सूर्यास्त किरणें, सूर्य में ही लीन हों,
मन रूप देव में इन्द्रियां त्यों सुषुप्ति काले लीन हों।
रस, गंध, श्रुति, स्पर्श, वाद, गति, ग्रहण, त्याग, से लीन हों,
पुनि जागरण, पुनि रवि उदय सम पुनः कर्म प्रवीण हों॥ [ २ ]
प्राण रूपी पञ्च अग्नियाँ, देह रूपी नगर में,
रहती हैं जागृत हर निमिष में और आगे पहर में।
है अपान गार्हपत्य अग्नि, व्यान दक्षिण अग्नि है,
प्रणयन के कारण आवह्नीय, प्राण रूपा अग्नि है॥ [ ३ ]
यह श्वास और प्रश्वास दोनों आहुति हैं यज्ञ की,
इस मन से ही यजमान करता वंदना अथ अज्ञ की।
है वायु ऋत्विक , इष्ट फलदाता, यही तो उदान है,
यही ब्रह्म लोके सुषुप्ति में, ले जाते मन को प्राण हैं॥ [ ४ ]
जीवात्मा स्वप्नावस्था में भी अनुभव कर सके,
दृष्टं -अदृशटम, दृश्य पुनि-पुनि, श्रुत अश्रुत को सुन सके।
सत् असत की अनुभूति का, अनुभूति कर्ता बन सके,
अथ आस्ति-नास्ति, विचित्र चित्र का स्वप्न दृष्टा बन सके॥ [ ५ ]
अभिभूत होता मन ये जब कि उदान वायु के तेज से,
तब स्वप्न को नहीं देखता है, उदान वायु के ओज से।
उस क्षण विशेष सुषुप्ति में, जीवात्मा को सुख महे,
होता प्रतीति व् इस प्रतीति को, तत्वगत कैसे कहें॥ [ ६ ]