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राग आसावरी / पृष्ठ - ४ / पद / कबीर

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मन कै मैलौ बाहरि ऊजलौ किसी रे,
खाँडे की धार जन कौ धरम इसी रे॥टेक॥
हिरदा कौ बिलाव नैन बगध्यानी,
ऐसी भगति न होइ रे प्रानी॥
कपट की भगति करै जिन कोई,
अंत की बेर बहुत दुख होई॥
छाँड़ि कपट भजौ राम राई,
कहै कबीर तिहुँ लोक बड़ाई॥233॥

चौखौ वनज ब्यौपार, आइनै दिसावरि रे राम जपि लाहौ लीजै॥टेक॥
जब लग देखौं हाट पसारा,
उठि मन बणियों रे, करि ले बणज सवारा।
बेगे ही तुम्ह लाद लदाँनों,
औघट घआ रे चलनाँ दूरि पयाँनाँ॥
खरा न खोटा नाँ परखानाँ,
लाहे कारनि रे सब मूल हिराँनाँ॥
सकल दुनीं मैं लोभ पियारा,
मूल ज राखै रे सोई बनिजारा॥
देस भला परिलोक बिराँनाँ,
जन दोइ चारि नरे पूछौ साथ सयाँनाँ॥
सायर तीन न वार न पारा,
कहि समझावै रे कबीर बणिजारा॥234॥

जौ मैं ग्याँन बिचार न पाया, तौ मैं यौं ही जनम गँवाया॥टेक॥
यह संसार हाट करि जाँनूँ, सबको बणिजण आया।
चेति सकै सो चेतौ रे भाई, मूरिख मूल गँवाया॥
थाके नैंन बैंन भी थाके, थाकी सुंदर काया।
जाँमण मरण ए द्वै थाके, एक न थाकी माया।
चेति चेति मेरे मन चंचल, जब लग घट में सासा।
भगति जाव परभाव न जइयौ, हरि क चरन निवासा॥
जे जन जाँनि जपैं जग जीवन, तिनका ग्याँन नासा।
कहै कबीर वै कबहूँ न हारैं, जाँने न ढारै पासा॥235॥

लावौं बाबा आगि जलावौं घरा रे, ता कारनि मन धंधै परा रे॥टेक॥
इक डाँइनि मेरे मन मैं बसै रे, नित उठि मेरे जिय को डसै रे।
या डाँइन्स ले लरिका पाँच रे, निस दिन मोहि नचावैं नाच रे।
कहै कबीर हूँ ताकौ दास, डाँइनि कै सँगि रहे उदास॥236॥

बंदे तोहि बंदिगी सौ काँम, हरि बिन जानि और हराँम।
दूरि चलणाँ कूँच वेगा, इहाँ नहीं मुकाँम॥टेक॥
इहाँ नहीं कोई यार दोस्त, गाँठि गरथ न दाम।
एक एकै संगि चलणाँ, बीचि नहीं बिश्राँम॥
संसार सागर बिषम तिरणाँ, सुमरि लै हरि नाँम।
कहै कबीर तहाँ जाइ रहणाँ, नगर बसत निधाँन॥237॥

झूठा लोग कहैं घर मेरा।
जा घर माँहैं बोलै डोलैं, सोई नहीं तन तेरा॥टेक॥
बहुत बँध्या परिवार कुटुँब मैं, कोई नहीं किस केरा।
जीवित आँषि मूँदि किन देखौ, संसार अंध अँधेरा॥
बस्ती मैं थैं मारि चलाया, जंगलि किया बसेरा।
घर कौ खरच खबरि नहीं भेजी, आप न कीया फेरा॥
हस्ती घोड़ा बैल बाँहणी, संग्रह किया घणेरा।
भीतरि बीबी हरम महल मैं, साल मिया का डेरा॥
बाजी को बाजीगर जाँनैं कै बाजीगर का चेरा।
चोरा कबहूँ उझकि न देखै चेरा अधिक चितेरा॥
नौ मन सूत उरझि नहीं सुरझै, जनमि जनमि उरझेरा।
कहै कबीर एक राम भजहु रे, बहुरि न हैगा फेरा॥238॥

हावड़ि धावड़ि जनम गवावै, कबहुँ न राम चरन चित लावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ दाँम तहाँ मन धावै, अँगुरी, गिनताँ रैंनि बिहावै।
तृया का बदन देखि सुख पावै, साथ की संगति कबहूँ न आवै॥
सरग के पंथि जात सब लोई सिर धरि पोट न पहुँच्या कोई।
कहै कबीर हरि कहा उबारे, अपणैं पाव आप जो मारै॥239॥

प्राँणी काहै कै लोभ लागि, रतन जनम खोयौ।
बहुरि हीरा हाथि न आवै, राम बिना रोयौ॥टेक॥
जल बूँद थैं ज्यानि प्यंड बाँध्या, अगनि कुंढ रहाया।
दस मास माता उदरि राख्या, बहुरि लागी माया॥
एक पल जीवन का आसा नाहीं, जम निहारे सासा।
बाजीगर संसार कबीरा, जाँनि ढारौ पासा॥240॥

फिरत कत फूल्यौ फूल्यौ।
जब दस मास उधर मुखि होते, सो दिन काहै भूल्यौ॥टेक॥
जौ झारै तौ होई भसम तन, रहम कृम ह्नै जाई॥
काँचै कुंभ उद्यक भरि राख्यौ, तिनकी कौन बड़ाई॥
ज्यूँ माषी मधु संचि करि, जोरि जोरि धन कीनो॥
मूय पीछै लेहु लेहु करि, प्रेत रहन क्यूँ दोनों॥
ज्यू घर नारी संग देखि करि, तब लग संग सुहेली॥
मरघट घाट खैचि करि राखे, वह देखिहु हंस अकेली॥
राम न रमहु मदन कहा भूले, परत अँधेररैं कूवा॥
कहै कबीर सोई आप बँधायौ, ज्यूँ नलनी का सूवा॥241॥

जाइ रे दिन हीं दिन देहा, करि लै बौरी राम सनेहा॥टेक॥
बालापन गयौ जोबन जासी, जुरा मरण भौ संकट आसी।
पलटै केस नैन जल छाया, मूरिख चेति बुढ़ापा आया॥
राम कहत लज्या क्यूँ कीजै, पल पल आउ घटै तन छीजै।
लज्या कहै हूँ जम की दासी, एकै हाथि मूदिगर दूजै हाथि पासी॥
कहै कबीर तिनहूँ सब हार्‌या, राम नाम जिनि मनहु बिसार्‌या॥242॥