भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राग आसावरी / पृष्ठ - ३ / पद / कबीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ता भै थैं मन लागौ राम तोही, करौ कृपा जिनि बिसरौ मोहीं॥टैक॥
जननी जठर सह्या दुख भारी,
सो संक्या नहीं गई हमारी॥
दिन दिन तन छीजै जरा जनावै,
केस गहे काल बिरदंग बजावै॥
कहै कबीर करुणामय आगैं,
तुम्हारी क्रिपा बिना यहु बिपति न भागै॥223॥

कब देखूँ मेरे राम सनेही, जा बिन दुख पावै मेरी देही॥टेक॥
हूँ तेरी पंथ निहारूँ स्वाँमी,
कब रमि लहुगे अंतरजाँमी॥
जैसैं जल बिन मीन तलपै,
एैसे हरि बिन मेरा जियरा कलपै॥
निस दिन हरि बिन नींद न आवै,
दरस पियासी राम क्यूँ सचु पावै।
कहै कबीर अब बिलंब न कीजै,
अपनौ जाँनि मोहि दरसन दीजै॥224॥

सो मेरा राम कबै घरि आवै, तो देखे मेरा जिय सुख पावै॥टेक॥
बिरह अगिनि तन दिया जराई, बिन दरसन क्यूँ होइ सराई॥
निस बासुर मन रहे उदासा, जैसैं चातिग नीर पियासा॥
कहै कबीर अति आतुरताई, हमकौं बेगि मिलौ राम राई॥225॥

मैं सामने पीव गौंहनि आई।
साँई संगि साथ नहीं पूगी, गयौ जोबन सुपिनाँ की नाँई॥टेक॥
पंच जना मिलि मंडप छायौ, तीन जनाँ मिलि लगन लिखाई।
सखी सहेली मंगल गावैं, सुख दुख माथै हलद चढ़ाई॥
नाँना रंगयै भाँवरि फेरी, गाँठि जोरि बावै पति ताई।
पूरि सुहाग भयो बिन दूलह, चौक कै रंगि धरो सगौ भाई॥
अपने पुरिष मुख कबहूँ न देख्यौ, सती होत समझी समझाई।
कहै कबीर हूँ सर रचि मरिहूँ, तिरौ कंत ले तूर बजाई॥226॥

धीरैं धीरैं खाइबौ अनत न जाइबौ, राम राम राम रमि रहिबौ॥टेक॥
पहली खाई आई माई, पीछै खैहूँ जवाई।
खाया देवर खाया जेठ, सब खाया ससुर का पेट।
खाया सब पटण का लोग, कहै कबीर तब पाया जोग॥227॥
टिप्पणी: ख-खाया पंच पटण का लोग।

मन मेरौ रहटा रसनाँ पुरइया, हरि कौ नाऊँ लैं लैं काति बहुरिया॥टेक॥
चारि खूँटी दोइ चमरख लाई, सहजि रहटवा दियौ चलाई।
सासू कहै काति बहू ऐसैं, बिन कातैं निसतरिबौ कैसैं॥
कहै कबीर सूत भल काता, रहटाँ नहीं परम पद दाता॥228॥

अब की घरी मेरी घर करसी, साथ संगति ले मोकौं तिरसीं॥टेक॥
पहली को घाल्यौ भरमत डाल्यौ, सच कबहूँ नहीं पायी॥
अब की धरनि धरी जा दिन थैं सगलौ भरम गमायौ॥
पहली नारि सदा कुलवंती, सासू सुसरा मानैं॥
देवर जेठ सबनि की प्यारी, पिव कौ मरम न जाँनैं॥
अब की धरनिधरी जा दिन थैं, पीव सूँ बाँन बन्यूँ रे।
कहै कबीर भग बपुरी कौ, आइ रु राम सुन्यूँ रे॥229॥

मेरी मति बौरी राम बिसारौं, किहि बिधि रहनि रहूँ हौ दयाल॥
सेजै रहूँ नैंन नहीं देखौं, यह दुख कासौं कहूँ हो दयाल॥टेक॥
सासु की दुखी ससुर की प्यारी, जेठ के तरसि डरौं रे॥
नणद सुहेली गरब गहेली, देवर कै बिरह जरौं हो दयाल॥
बाप सावको करैं लराई, माया सद मतिवाली।
सगौ भइया लै सलि चिढ़हूँ तब ह्नै हूँ पीयहि पियारी॥
सोचि बिचारि देखौं मन माँहीं, औसर आइ बन्यूँ रे।
कहै कबीर सुनहु मति सुंदरि, राजा राम रमूँ रे॥230॥

अवधू ऐसा ग्याँन बिचारी, ताथै भई पुरिष थैं नारी॥टेक॥
ना हूँ परनी नाँ हूँ क्वारी, पून जन्यूँ द्यौ हारी।
काली मूँड कौ एक न छोड़ो, अजहूँ अकन कुवारी॥
बाम्हन के बम्हनेटी कहियौ, जोगी के घरि चेला।
कलमाँ पढ़ि पढ़ि भई तुरकनी, अजहूँ फिरौं अकेली॥
पीहरि जाँऊँ न सासुरै, पुरषहिं अंगि न लाँऊँ।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, अंगहि अँग छुवाँऊँ॥231॥
टिप्पणी: ख-पूत जने जनि हारी।

मीठी मीठी माया तजी न जाई।
अग्याँनी पुरिष कौ भोलि भोलि खाई॥टेक॥
निरगुण सगुण नारी, संसारि पियारी,
लषमणि त्यागी गोरषि निवारी।
कीड़ी कुंजर मैं रही समाई,
तीनि लोक जीत्या माया किनहुँ न खाई॥
कहै कबीर पद लेहु बिचारी,
संसारि आइ माया किन्हूँ एक कही षारी॥232॥