भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राग आसावरी / पृष्ठ - २ / पद / कबीर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरी मेरे मनवाँ तोहि धरि टाँगौं,
तै तौ कीयौ मेरे खसम सूँ षाँगी॥टेक॥
प्रेम की जेवरिया तेरे गलि बाँधूँ, तहाँ लै जाँउँ जहाँ मेरौ माधौ।
काया नगरीं पैसि किया मैं बासा, हरि रस छाड़ि बिषै रसि माता॥
कहै कबीर तन मन का ओरा भाव भकति हरिसूँ गठजोरा॥213॥

परब्रह्म देख्या हो तत बाड़ी फूली, फल लागा बडहूली।
सदा सदाफल दाख बिजौरा कौतिकहारी भूली॥टेक॥
द्वादस कूँवा एक बनमाली, उलट नीर चलावै।
सहजि सुषमनाँ कूल भरावै, दह दिसि बाड़ी पावै॥
ल्यौकी लेज पवन का ढींकू, मन मटका ज बनाया।
सत की पाटि सुरति का चठा, सहजि नीर मुलकाया॥
त्रिकुटी चढ़îौ पाव ढौ ढारै, अरध उरध की क्यारी।
चंद सूर दोऊ पाँणति करिहै, गुर सुषि बीज बिचारी॥
भरी छाबड़ा मन बैकुंठा, साँई सूर हिया रगा।
कहै कबीर सुनहु रे संतो, हरि हँम एकै संगा॥214॥

राम नाम रँग लागौ कुरंग न होई, हरि रंग सौ रंग और न कोई॥टेक॥
और सबै रंग इहि रंग थैं छूटै, हरि रंग लागा कदे न खूटै।
कहै कबीर मेरे रंग राम राँई, और पतंग रंग उड़ि जाई॥215॥

कबीरा प्रेम कूल ढरै, हँमारे राम बिना न सरे।
बाँधि ले धौंरा सीचि लै क्यारी ज्यूँ तूँ पेड़ भरैं॥टेक॥
काया बाड़ी महैं माली, टहल करै दिन राती।
कबहूँ न सोवै काज भँवारे, पाँण तिहारी माती॥
सेझै कूवा स्वाजि अति सीतल, कबहूँ कुवा बनहीं रे।
भाग हँमारे हरि रखवाले, कोई उजाड़ नहीं रे॥
गुर बीज जनाया कि रखि न पाया, मन को आपदा खोई।
औरै स्यावढ़ करै षारिसा, सिला करै सब कोई॥
जौ घरि आया तौ सब ल्याया, सबही काज सँवार्या।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, थकित भया मैं हार्‌या॥216॥

राजा राम बिना तकती धो धो।
राम बिना नर क्यूँ छूटौगे, जम करै नग धो धो धो॥टेक॥
मुद्रा पहर्या जोग न होई, घूँघट काढ़ा सती न कोई।
मा कै सँगि हिलि मिलि आया, फौकट सटै जनम गँवाया।
कहै कबीर जिनि हरि पद चीन्हाँ, मलिन प्यंड थैं निरमल कीन्हा॥217॥

है कोई राम नाम बतावै, वस्तु अगोचर मोहि लखावै॥टेक॥
राम नाम सब बखानै, राम नाम का मरम जाँनैं॥
ऊपर की मोहि बात न भावै, देखै गावैं तौ सुख पावै।
कहै कबीर कछू कहत न आवै, परचै बिनाँ मरम को पावै॥218॥

गोब्यंदे तूँ निरंजन तूँ निरंजन राया।
तेरे रूप नहीं रेख नाँहीं, मुद्रा नहीं माया॥टेक॥
समद नाँहीं सिषर नाँहीं, धरती नाँहीं गगनाँ।
रबि ससि दोउ एकै नाँहीं, बहता नाँहीं पवनाँ॥
नाद नाँही ब्यँद नाँहीं काल नहीं काया।
जब तै जल ब्यंब न होते, तब तूँहीं राम राया॥
जप नाहीं तप नाहीं जोग ध्यान नहीं पूजा।
सिव नाँहीं सकती नाँहीं देव नहीं दूजा॥
रुग न जुग न स्याँम अथरबन, बेदन नहीं ब्याकरनाँ।
तेरी गति तूँहि जाँनै, कबीरा तो मरनाँ॥219॥

राम कै नाँइ निसाँन बागा, ताका मरक न जानै कोई।
भूख त्रिषा गुण वाकै नाँहीं, घट घट अंतरि लोई॥टेक॥
बेद बिबर्जित भेद बिबर्जित बिबर्जित पाप रु पुंन्यं।
स्वाँन बिबर्जित ध्यान बिबर्जित, बिबर्जित अस्थूल सुंन्यं।
भेष बिबर्जित भीख बिबर्जित, बिबर्जित ड्यंमक रूपं।
कहै कबीरा तिहूँ लोक बिबर्जित, ऐसा तत्त अनूप॥220॥
राम राम राम रमि रहिए, साषित सेती भूलि न कहिये॥टेक॥
का सुनहाँ कौ सुमृत सुनायें, का साषित पै हरि गुन गाँये।
का कऊवा कौं कपूर खवाँयें, का बिसहर कौं दूध पिलाँयें।
साषित सुनहाँ दोऊ भाई, वो नींदे कौ भौंकत जाई।
अंमृत ले ले नींब स्यँचाई, कत कबीर बाकी बाँनि न जाई॥221॥

अब न बसूँ इहि गाँइ गुसाँई, तेरे नेवगी खरे सयाँने हो रामा॥टेक॥
नगर एक तहाँ जीव धरम हता, बसै जु पच किसानाँ।
नैनूँ निकट श्रवनूँ रसनूँ, इंद्री कह्या न मानै हो राम॥
गाँइ कु ठाकुर खेत कु नेपै, काइथ खरच न पारै।
जोरि जेवरी खेति पसारै, सब मिलि मोकौं मारै हो राम॥
खोटी महतौ बिकट बलाही, सिर कसदम का पारै।
बुरा दिवाँन दादि नहिं लागै, इक बाँधे इक मारै हो राम॥
धरमराई जब लेखा माँग्या, बाकी निकसी भारी।
पाँच किसानाँ भाजि गये हैं, जीव धर बाँध्यौ पारी हो राम॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, हरि भजि बाँधौ भेरा।
अबकी बेर बकसि बंदे कौं, सब खेत करौ नबैरा॥222॥