राग आसावरी / पृष्ठ - ५ / पद / कबीर
मेरी मेरी करताँ जनम गयौ, जनम गयौ पर हरि न कह्यौ॥टेक॥
बारह बरस बालापन खोयौ, बीस बरस कछु तप न कयौ।
तीन बरस कै राम न सुमिरौं, फिरि पछितानौं बिरध भयो॥
आयौ चोर तुरंग मुसि ले गयौ, मोरी राखत मगध फिरै॥
सीस चरन कर कंपन लागै, नैन नीर अस राल बहै।
जिभ्या बचन सूध नहीं निकसै, तब सुकरित की बात कहै॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ धन संच्यो कछु संगि न गयौ।
आई तलब गोपाल राइ की, मैंडी मंदिर छाड़ि चल्यौ॥243॥
टिप्पणी: ख-मौरी बाँधत।
जाहि जाती नाँव न लीया, फिरि पछितावैगौ रे जीया॥टेक॥
धंधा करत चरन कर घाटे, जाउ घटि तन खीना।
बिषै बिकार बहुत रुचि माँनी, माया मोह चित दीन्हाँ॥
जागि जागि नर काहें सोवै, सोइ सोइ कब जागेगा।
जब घर भीतरि चोर पड़ैंगे, अब अंचलि किसके लागेगा॥
कहै कबीर सुनहु रे संतो, करि ल्यौ जे कछु करणाँ।
लख चौरासी जोनि फिरौगे, बिना राम की सरनाँ॥244॥
टिप्पणी: ख-धंधा करत करत कर थाके।
माया मोहि मोह हित कीन्हाँ, ताथैं मेरो ग्याँन ध्याँन हरि लीन्हाँ॥टेक॥
संसार ऐसा सुपिन जैसा, न सुपिन समाँन।
साँच करि नरि गाँठि बाँध्यौं, छाड़ि परम निधाँन॥
नैन नेह पतंग हुलसै, पसू न पेखै आगि।
काल पासि जु मुगध बाँध्या, कलंक काँमिनी लागि॥
करि बिचार बिकार परहरि, तिरण तारण सोइ।
कहै कबीर रघुनाथ भजि नर, दूजा नाँही कोइ॥245॥
तेरा तेरा झूठा मीठा लागा, ताथैं साचे सूँ मन भागा॥टेक॥
झूठे के घरि झूठा आया, झूठै खाना पकाया।
झूठी सहन क झूठा बाह्या, झूठै झूठा खाया॥
झूठा ऊठण झूठा बैठण, झूठो सबै सगाई।
झूठे के घरि झूठा राता, साचे को न पत्याई॥
कहै कबीर अलह का पगुरा, साँचे सूँ मन लावौ।
झूठे केरी संगति त्यागौ, मन बंछित फल पावौ॥246॥
कौंण कौण गया राम कौंण कौण न जासी,
पड़सी काया गढ़ माटी थासी॥टेक॥
इंद्र सरीखे गये नर कोड़ी, पाँचौं पाँडौं सरिषी जोड़ी।
धू अबिचल नहीं रहसी तारा, चंद सूर की आइसी वारा॥
कहै कबीर जब देखि संसारा, पड़सी घट रहसी निरकारा॥247॥
ताथैं सेविये नाराँइणाँ प्रभू मेरो दीनदयाल दया करणाँ॥टेक॥
जौ तुम्ह पंडित आगम जाँणौं, विद्या व्याकरणाँ।
तंत मंत सब ओषदि जाणौं, अति तऊ मरणाँ॥
राज पाट स्यंघासण आसण, बहु सुंदर रमणाँ।
चंदन चीर कपूर विराजत, अंति तऊ मरणाँ॥
जोगी जती तपी संन्यासी, बहु तीरथ भरमणाँ।
लुंचित मुंडित मोनि जटाधर, अंति तऊ मरणाँ॥
प्रोचि बिचारि सबै जग देख्या, कहूँ न ऊबरणाँ।
कहै कबीर सरणाई आयौ, मेटि जामन मरणाँ॥248॥
पाँड़े न करसि बाद बिबादं, या देही बिना सबद न स्वादं॥टेक॥
अंड ब्रह्मंड खंड भी माटी माटी नवनिधि काया।
माटी खोजत सतगुर भेट्या, तिन कछू अलख लखाया॥
जीवत माटी मूवा भी माटी, देखौ ग्यान बिचारी।
अंति कालि माटी मैं बासा, लेटे पाँव पसारी॥
माटी का चित्र पवन का थंभा, ब्यंद संजोगि उपाया।
भाँनैं घड़े सवारै सोई, यहु गोब्यंद की माया।
माटी का मंदिर ग्यान का दीप पवन बाति उजियारा।
तिहि उजियारै सब जग सूझै कबीर ग्याँन बिचारा॥249॥
मेरी जिभ्या बिस्न नैन नाराँइन, हिरदै जपौं गोबिंदा।
जब दुवार जब लेख माँग्या, तब का कहिसि मुकंदा॥टेक॥
तूँ ब्राह्मण मैं कासी का जुलाहा, चीन्हि न मोर गियाना।
तैं सब माँगे भूपति राजा, मोरे राम धियाना॥
पूरब जनम हम ब्राँह्मन होते, वोछैं करम तप हीनाँ।
रामदेव की सेवा चूका, पकरि जुलाहा कीन्हाँ॥
नौमी नेम दसमी करि संजम, एकादसी जागरणाँ।
द्वादसी दाँन पुन्नि की बेलाँ, सर्व पाप छ्यौ करणाँ॥
भौ बूड़त कछू उपाय करीजै, ज्यूँ तिरि लंघै तीरा।
राम नाम लिखि मेरा बाँधौ, कहै उपदेस कबीरा॥250॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
कहु पाँडे कैसी सुचि कीजै, सुचि कीजै तौ जनम न लीजै॥टेक॥
जा सुचि केरा करहु बिचारा, भिष्ट नए लीन्हा औतारा।
जा कारणि तुम्ह धरती काटी, तामै मूए जीव सौ साटी॥
जा कारणि तुम्ह लीन जनेऊ, थूक लगाइ कातै सब कोऊ।
एक खाल घृत केरी साखा, दूजी खाल मैले घृत राखा॥
सो घृत सब देवतनि चढ़ायौ, सोई घृत सब दुनियाँ भायौ।
कहै कबीर सुचि देहु बताई, राम नाम लीजौ रे भाई॥250॥
कहु पाँड़े सुचि कवन ठाँव, जिहि घरि भोजन बैठि खाऊँ॥टेक॥
माता जूठा पिता पुनि जूठा जूठे फल चिल लागे।
जूठ आँवन जूठा जाँनाँ, चेतहु क्यूँ न अभागे॥
अन्न जूठा पाँनी पुनि जूठा, जूठे बैठि पकाया।
जूठी कड़छी अन्न परोस्या, जूठे जूठा खाया॥
चौका जूठा गोबर जूठा, जूठी का ढोकारा।
कहै कबीर तेई जन सूचे, जे हरि भजि तजहिं बिकारा॥251॥
हरि बिन झूठे सब ब्यौहार, केते कोऊ करौ गँवार॥टेक॥
झूठा जप तप झूठा ग्याँन, राम राम बिन झूठा ध्याँन।
बिजि नखेद पूजा आचार, सब दरिया मैं वार न पार॥
इंद्री स्वारथ मन के स्वाद, जहाँ साच तहाँ माँडै बाद।
दास कबीर रह्या ल्यौ लाइ, मर्म कर्म सब दिये बहाइ॥252॥