राग सोरठि / पृष्ठ - २ / पद / कबीर
इब न रहूँ माटी के घर मैं,
इब मैं जाइ रहूँ मिलि हरि मैं॥टेक॥
छिनहर घर अरु झिरहर टाटी, धन गरजत कंपै मेरी छाती॥
दसवैं द्वारि लागि गई तारी, दूरि गवन आवन भयौ भारी॥
चहुँ दिसि बैठे चारि पहरिया, जागत मुसि नये मोर नगरिया॥
कहै कबीर सुनहु रे लोई, भाँनड़ घड़ण सँवारण सोई॥273॥
कबीर बिगर्या राम दुहाई,
तुम्ह जिनि बिगरौ मेरे भाई॥टेक॥
चंदन कै ढिग बिरष जु मैला, बिगरि बिगरि सो चंचल ह्नैला॥
पारस कौं जे लोह छिवैगा, बिगरि बिगरि सो कंचन ह्नैला॥
गंगा मैं जे नीर मिलैगा, बिगरि बिगरि गंगोदिक ह्नैला॥
कहै कबीर जे राम कहैला, बिगरि बिगरि सो राँमहि ह्नैला॥274॥
राम राम भई बिकल मति मोरी,
कै यहु दुनी दिवानी तेरी॥टेक॥
जे पूजा हरि नाही भावै सो पूजनहार चढ़ावै॥
जिहि पूजा हरि भल माँनै, सो पूजनहार न जाँनै॥
भाव प्रेम की पूजा ताथै भयो देव थैं दूजा॥
का कीजै बहुत पसारा, पूजी जे पूजनहारा॥
कहै कबीर मैं गावा, मैं गावा आप लखावा॥
जो इहि पद माँहि समाना, सो पूजनहार सयाँना॥275॥
राम राम भई बिगूचनि भारी,
भले इन ग्याँनियन थैं संसारी॥टेक॥
इक तप तीरथ औगाहैं इक मानि महातम चाँहै॥
इक मैं मेरी मैं बीझै, इक अहंमेव मैं रीझै॥
इक कथि कथि भरम जगाँवैं, सँमिता सी बस्त न पावैं।
कहै कबीर का कीजै, हरि सूझे सो अंजन दीजै॥276॥
काया मंजसि कौन गुनाँ,
घट भीतरि है मलनाँ॥टेक॥
जौ तूँ हिरदै सुख मन ग्यानीं, तौ कहा बिरौले पाँनी।
तूँबी अठसठी तीरथ न्हाई, कड़वापन तऊ न जाई॥
कहै कबीर बिचारी, भवसागर तारि मुरारी॥277॥
कैसे तूँ हरि कौ दास कहायौ,
कारे बहु भेषर जनम गँवायौ॥टेक॥
सुध बुध होइ भज्यौ नहिं सोई काछ्यो ड्यँभ उदर कै ताँई॥
हिरदै कपट हरि सूँ नहीं साँचौ, कहो भयो जे अनहद नाच्यौ॥
झूठे फोकट कलू मँझारा, राम कहै ते दास नियारा॥
भगति नारदी मगन सरीरा, इहि बिधि भव तिरि कहै कबीरा॥278॥
राँम राइ इहि सेवा भल माँनें,
जै कोई राँम नाँम तन जाँनैं॥टेक॥
दे नर कहा पषालै काया, सो तन चीन्हि जहाँ थैं आया॥
कहा बिभूति अटा पट बाँधे, का जल पैसि हुतासन साधें॥
राँममाँ दोई आखिर सारा, कहै कबीर तिहुँ लोक पियारा॥279॥
इहि बिधि राँम सूँ ल्यौ लाइ।
चरन पाषें निरति करि, जिभ्या बिना गुँण गाइ॥टेक॥
जहाँ स्वाँति बूँद न सीप साइर सहजि मोती होइ।
उन मोतियन में नीर पीयौ पवन अंबर धोइ॥
जहाँ धरनि बरषै गगन भीजै, चंद सूरज मेल।
दोइ मिलि तहाँ जुड़न लागे, करता हंसा केलि॥
एक बिरष भीतरि नदी चाली, कनक कलस समाइ।
पंच सुवटा आइ बैठे, उदै भई बनराइ॥
जहाँ बिछट्यो तहाँ लाग्यौ, गगन बैठी जाइ।
जन कबीर बटाऊवा, जिनि मारग लियौ चाइ॥280॥
ताथैं मोहि नाचवौ, न आवै,
मेरो मन मंदला न बजावै॥टेक॥
ऊभर था ते सूभर भरिया, त्रिष्णां गागरि फूटी।
हरि चिंतत मेरो मंदला भीनौं, भरम भीयन गयौ छूटी॥
ब्रह्म अगनि मैं जरी जु ममिता, पाषंड अरु अभिमानाँ।
काम चोलना भया पुराना, मोपैं होइ न आना॥
जे बहु रूप कीये ते किये, अब बहु रूप न होई।
थाकी सौंज संग के बिछुरे, राम नाँम मसि धोई॥
जे थे सचल अचल ह्नै थाके, करते बाद बिबाद।
कहै कबीर मैं पूरा पाया, भय राम परसाद॥281॥
अब क्या कीजै ग्यान बिचारा,
निज निरखत गत ब्यौहारा॥टेक॥
जाचिग दाता इक पाया धन दिया जाइ न खाया॥
कोई ले भरि सकै न मूका, औरनि पै जानाँ चूका॥
तिस बाझ न जीब्या जाई, वो मिलै त घालै खाई॥
वो जीवन भला कहाहीं, बिन मूवाँ जीवन नाहीं॥
घसि चंदन बनखंडि बारा, बिन नैननि रूप निहारा॥
तिहि पूत बाप इक जाया, बिन ठाहर नगर बसाया॥
जौ जीवत ही मरि जाँनै, तौ पंच सयल सुख मानैं॥
कहै कबीर सो पाया, प्रभु भेटत आप गँवाया॥282॥