राग सोरठि / पृष्ठ - १ / पद / कबीर
हरि को नाम न लेइ गँवारा, क्या सोंचे बारंबारा॥टेक॥
पंच चोर गढ़ मंझा, गड़ लूटै दिवस रे संझा॥
जौ गढ़पति मुहकम होई, तौ लूटि न सकै कोई॥
अँधियारै दीपक चहिए, तब बस्त अगोचर लहिये॥
जब बस्त अगोचर पाई, तब दीपक रह्या समाई॥
जौ दरसन देख्या चाहिये, तौ दरपन मंजत रहिये॥
जब दरपन लागै कोई, तब दरसन किया न जाई॥
का पढ़िये का गुनिये, का बेद पुराना सुनिये॥
पढ़े गुने मति होई मैं सहजैं पाया सोई॥
कहैं कबीर मैं जाँनाँ, मैं जाँनाँ मन पतियानाँ॥
पतियानाँ जौ न पतीजै, तौ अंधै कूँ का कीजै॥262॥
अंधै हरि बिन को तेरा, कवन सूँ कहत मेरी मेरा॥टेक॥
तजि कुलाकष्म अभिमाँनाँ, झूठे भरमि कहा भुलानाँ॥
झूठे तन की कहा बड़ाई, जे निमष माँहि जरि जाई॥
जब लग मनहिं विकारा, तब लगि नहीं छूटै संसारा।
जब मन निरमल करि जाँनाँ, तब निरमल माँहि समानाँ।
ब्रह्म अगनि ब्रह्म सोई, अब हरि बिन और न कोई॥
जब पाप पुँनि भ्रँम जारी, तब भयो प्रकास मुरारी।
कहैं कबीर हरि ऐसा, जहाँ जैसा तहाँ तैसा॥
भूलै भरमि परै जिनि कोई, राजा राम करै सो होई॥263॥
मन रे सर्यौ न एकौ काजा, ताथैं भज्यौ न जगपति राजा॥टेक॥
बेद पुराँन सुमृत गुन पढ़ि गुनि भरम न पावा।
संध्या गायत्री अरु षट करमाँ, तिन थैं दूरि बतावा॥
बनखंडि जाइ बहुत तप कीन्हाँ, कंद मूल खनि खावा।
ब्रह्म गियाँना अधिक धियाँनी, जम कै पटैं लिखावा॥
रोजा किया निवाज गुजारी, बंग दे लोग सुनावा।
हिरदै कपट मिलै क्यूँ साँई, क्या हल काबै जावा॥
पहरौं काल सकल जग ऊपरि, माँहै लिखे सब ग्याँनी।
कहै कबीर ते भये षालसे, राम भगति जिनि जाँनी॥264॥
मन रे जब तैं राम कह्यौ, पीछै कहिबे कौ कछू न रह्यौ॥टेक॥
का जाग जगि तप दाँनाँ, जौ तै राम नाम नहीं जाँना॥
काँम क्रोध दोऊ भारे, ताथैं गुरु प्रसादि सब जारे॥
कहै कबीर भ्रम नासी, राजा राम मिले अबिनासी॥265॥
राम राइ सी गति भई हमारी, मो पै छूटत नहीं संसारी॥टेक॥
यूँ पंखी उड़ि जाइ अकासाँ, आस रही मन माँहीं॥
छूटीं न आस टूट्यौ नहीं फंधा उडिबौ लागौ काँहीं॥
जो सुख करत होत दुख तेही, कहत न कछु बनि आवै॥
कुंजर ज्यूँ कस्तूरी का मृग, आपै आप बँधावै॥
कहै कबीर नहीं बस मेरा, सुनिये देव मुरारी॥
इन भैभीत डरौं जम दूतनि, आये सरनि तुम्हारी॥266॥
राम राइ तूँ ऐसा अनभूत तेरी अनभैं थैं निस्तरिये॥
जे तुम्ह कृपा करौ जगजीवन तौ कतहूँ न भूलि न परिये॥टेक॥
हरि पद दुरलभ अगर अगोचर, कथिया गुर गमि बिचारा।
जा कारँनि हम ढूँढ़त फिरते, आथि भर्यो संसारा॥
प्रगटी जोति कपाट खोलि दिये, दगधे जम दुख द्वारा।
प्रगटे बिस्वनाथ जगजीवन, मैं पाये करत बिचारा॥
देख्यत एक अनेक भाव है, लेखत जात अजाती।
बिह कौ देव तजि ढूँढत फिरते मंडप पूजा पाती॥
कहै कबीर करुणामय किया, देरी गलियाँ बह बिस्तारा।
राम कै नाँव परम पद पाया छूटै बिघन बिकारा॥267॥
राम राइ को ऐसा बैरागी, हरि भजि मगन रहै बिष त्यागी॥टेक॥
ब्रह्मा एक जिनि सृष्टि उपाई, नाँव कुनाल धराया।
बहु विधि भाँडै उमही घड़िया, प्रभु का अंत न पाया॥
तरवर एक नाँनाँ बिधि फलिया, ताकै मूल न साखा।
भौजलि भूलि रह्या से प्राणी सो फल कदे न चाखा॥
कहै कबीर गुर बचन हेत करि और न दुनियाँ आथी।
माटी का तन माटी मिलिहै, सबद गुरु का साथी॥268॥
नैक निहारी हो माया बिनती करै,
दीन बचन बोले कर जोरे, फुनि फुनि पाइ परै॥टेक॥
कनक लेहु जेता मनि भावै, कामिन लेहु मन हरनीं।
पुत्र लेहु विद्या अधिकारी राजा लेहु सब धरनीं॥
अठि सिधि लेहु तुम्ह हरि के जनाँ नवैं निधि है तुम्ह आगैं॥
सुर नर सकल भवन के भूपति, तेऊ लहै न मागैं॥
तै पापणीं सबै संधारे काकौ काज सँवारौं॥
दास कबीर राम कै सरनै छाड़ी झूठी माया।
गुर प्रसाद साथ की संगति, तहाँ परम पद पाया॥269॥
तुम्ह घरि जाहू हँमारी बहनाँ, बिष लागै तुम्हारे नैना॥टेक॥
अंजन छाड़ि निरंजन राते नाँ किसही का दैनाँ।
बलि जाऊँ ताकी जिनि तुम्ह पठई एक महा एक बहनाँ॥
राती खाँडी देख कबीरा, देखि हमारा सिंगारौ॥
सरग लोक थैं हम चलि आई, करत कबीर भरतारौ॥
सर्ग लोक में क्या दुख पड़िया, तुम्हे आई कलि माँहि।
जाति जुलाहा नाम कबीरा, अजहुँ पतीजौ नाँही॥
तहाँ जाहु जहाँ पाट पटंबर, अगर चंदन घसि लीनाँ।
आइ हमारै कहाँ करौगी, हम तौ जाति कमीनाँ॥
जिनि हँम साजे साँज्य निवाजे बाँधे काचै धागै।
जे तुम्ह जतन करो बहुतेरा, पाँणी आगि न लागै॥
साहिब मेरा लेखा मागै लेखा क्यूँ करि दीजै।
ते तुम्ह जतन करो बहुतेरा, तौ पाँइण नीर न भीजै॥
जाकी मैं मछी मो मेरा मछा, सो मरा रखवालू।
टुक एक तुम्हारै हाथ लगाऊँ, तो राजाँ राँम रिसालू॥
जाति जुलाहा नाम कबीरा, बनि बनि फिरौं उदासी।
आसि पासि तुम्ह फिरि फिरि बैसो, एक माउ एक मासी॥270॥
ताकूँ रे कहा कीजै भाई,
तजि अंमृत बिषै सूँ ल्यौ लाई॥टेक॥
बिष संग्रह कहा सुख पाया,
रंचक सुख कौ जनम गँवाया॥
मन बरजै चित कह्यो न करई,
सकति सनेह दीपक मैं परई॥
कहत कबीर मोहि भगति उमाहा,
कृत करणी जाति भया जुलाहा॥271॥
रे सुख इब मोहि बिष भरि लगा
इनि सुख डहके मोटे मोटे छत्रापति राजा॥टेक॥
उपजै बिनसै जाइ बिलाई संपति काहु के संगि न जाई॥
धन जोबन गरब्यो संसारा, बहु तन जरि बरि ह्नै छारा।
चरन कवल मन राखि ले धीरा, राम रमत सुख कहै कबीरा॥272॥