राग सोरठि / पृष्ठ - ३ / पद / कबीर
अब मैं पायौ राजा राम सनेही॥टेक॥
जा बिनु दुख पावै मेरी देही॥टेक॥
वेद पुरान कहत जाकी साखी, तीरथि ब्रति न छूटै जंम की पासी॥
जाथैं जनम लहत नर आगैं, पाप पुंनि दोऊ भ्रम लागै॥
कहै कबीर सोई तत जागा, मन भया मगन प्रेम रस लागा॥283॥
बिरहिनी फिरै है नाम अधीरा,
उपजि बिनाँ कछू समझि न परई, बाँझ न जानै पीरा॥टेक॥
या बड़ बिथा सोई भल जाँने राँम बिरह सर मारी।
कैसो जाँने जिनि यहु लाई, कै जिनि चोट सहारी॥
संग की बिछुरी मिलन न पावै सोच करै अरु काहै।
जतन करै अरु जुगति बिचारै, रटै राँम कूँ चाहै॥
दीन भई बूझै सखियन कौं, कोई मोही राम मिलावै।
दास कबीर मीन ज्यूँ तलपै, मिलै भलै सचु पावै॥284॥
जातनि बेद न जानैगा जन सोई,
सारा भरम न जाँनै राँम कोई॥टेक॥
चषि बिन दिवस जिसी है संझा,
ब्यावन पीर न जानै बंझा॥
सूझै करक न लागै कारी,
बैद बिधाता करि मोहि सारी॥
कहै कबीर यहु दुख कासनि कहिये,
अपने तन की आप ही सहिये॥285॥
जन की पीर हो राजा राम भल जाँनै,
कहूँ काहि को मानै॥टेक॥
नैन का दुख बैन जाँने, बैन को दुख श्रवनाँ॥
प्यंड का दुख प्रान जानै, प्रान का दुख मरनाँ॥
आस का दुख प्यासा जानै, प्यास का दुख नीर॥
भगति का दुख राम जानैं, कहै दास कबीर॥286॥
तुम्ह बिन राँम कवन सौं कहिये,
लागी चोट बहुत दुख सहिये॥टेक॥
बेध्यौ जीव बिरह कै भालै, राति दिवस मेरे उर सालै॥
को जानै मेरे तन की पीरा, सतगुर बहि गयौ सरीरा॥
तुम्ह से बैद न हमसे रोगी, उपजी बिथा कैसे जीवैं बियोगी॥
निस बासुरि मोहि चितवत जाई, अजहूँ न आइ मिले राँम राई॥
कहत कबीर हमकौं दुख भारी, बिन दरसन क्यूँ जीवहि मुरारी॥287॥
टिप्पणी: ख प्रति में अंतिम पंक्ति इस प्रकार है-
लागी चोट बहुत दुख सहिये॥देखो 287 की टेक।
तेरा हरि नाँमैं जुलाहा,
मेरे राँम रमण को लाहा॥टेक॥
दस सै सूत्रा की पुरिया पूरी, चंद सूर दोइ साखी।
अनत नाँव गिनि लई मजूरी, हिरदा कवल मैं राखी॥
सुरति सुमृति दोइ खूँटी कीन्हीं आरँभ कीया बमेकीं।
ग्यान तत की नली भराई बुनित आतमा पेषीं॥
अबिनासी धन लई मँजूरी, पूरी थापनि पाई।
रस बन सोधि सोधि सब आये, निकटै दिया बताई॥
मन सूधा कौ कूच कियौ है, ग्यान बिरथनीं पाई।
जीव की गाँठि गुढी सब भागी, जहाँ की तहाँ ल्यौ लाई॥
बेठि बेगारि बुराई थाकी, अनभै पद परकासा।
दास कबीर बुनत सच पाया, दुख संसार सब नासा॥288॥
भाई रे सकहु त तनि बुनि लेहु रे,
पीछे राँमहि दोस न देहु रे॥टेक॥
करगहि एकै बिनाँनी, ता भीतरि पंच पराँनी॥
तामैं एक उदासी, तिहि तणि बुणि सबै बिनासी॥
ज तूँ चौसठि बरिया धावा, नहीं होइ पंच सूँ मिलाँवा॥
जे तैं पाँसै छसै ताँणी, तौ सुख सूँ रह पराँणीं॥
पहली तणियाँ ताणाँ पीछ बुणियाँ बाँणाँ॥
तणि बुणि मुरतब कीन्हाँ, तब राम राइ पूरा दीन्हाँ॥
राछ भरत भइ संझा, तरुणीं त्रिया मन बंधा॥
कहै कबीर बिचारा, अब छोछी नली हँमारी॥289॥
वै क्यूँ कासी तजैं मुरारी,
तेरी सेवा चोर भशे बनवारी॥टेक॥
जोगी जती तपी संन्यासी, मठ देवल बसि परसै कासी॥
तीन बार जे निज प्रति न्हावै, काया भीतरि खबरि न पावै॥
देवल देवल फेरी देहीं, नाँव निरंजन कबहुँ न लेहीं॥
चरन बिरद कासी कौं न देहूँ, कहै कबीर भल नरकहिं जैहूँ॥290॥
तब काहे भूलौ बजजारे,
अब आयौ चाहै संगि हँमारे॥टेक॥
जब हँम बनजी लौंग सुपारी, तब तुम्ह काहे बनजी खारी।
जब हम बनजी परमल कस्तूरी, तब तू काहे बनजी कूरी॥
अंमृत छाड़ि हलाहल खाया, लाभ लाभी करि करि मूल गँवाया।
कहै कबीर हँम बनज्या सोई, जाँथै आवागमन न होई॥291॥
परम गुर देखो रिदै बिचारी,
कछू करौ सहाई हमारी॥टेक॥
लावानालि तंति एक सँमि करि जंत्रा एक भल साज।
सति असति कछु नाहीं जानूँ, जैसे बजवा तैसैं बाजा॥
चोर तुम्हारा तुम्हारी आग्या, मुसियत नगर तुम्हारा।
इनके गुनह हमह का पकरौ, का अपराध हमारा॥
सेई तुम्ह सेई हम एकै कहियत, जब आपा पर नाहीं जाँनाँ।
ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, कहै कबीर मन माँनाँ॥292॥