राग सोरठि / पृष्ठ - ४ / पद / कबीर
मन रे आइर कहाँ गयौ,
ताथैं मोहि वैराग भयौ॥टेक॥
पंच तत ले काया कीन्हीं, तत कहा ले कीन्हाँ।
करमौं के बसि जीव कहत है, जीव करम किनि दीन्हाँ॥
आकास गगन पाताल गगन दसौं दिसा गगन रहाई ले।
आँनँद मूल सदा परसोतम, घट बिनसै गगन न जाई ले॥
हरि मैं तन हैं तन मैं हरि है, है पुनि नाँही सोई।
कहै कबीर हरि नाँम न छाडू सहजै होई सो होई॥293॥
हँमारै कौन सहै सिरि भारा,
सिर की शोभा सिरजनहारा॥टेक॥
टेढी पाग बड जूरा, जबरि भये भसम कौ कूरा॥
अनहद कीगुरी बाजी, तब काल द्रिष्टि भै भागी॥
कहै कबीर राँम राया, हरि कैं रँगैं मूड़ मुड़ाया॥294॥
कारनि कौन सँवारे देहा,
यहु तनि जरि बरि ह्नै षेहा॥टेक॥
चोवा चंदन चरचत अंगा, सो तन जरत काठ के संगा॥
बहुत जतन करि देह मुट्याई, अगिन दहै कै जंबुक खाई॥
जा सिरि रचि रचि बाँधत पागा ता सिरि चंच सँवारत कागा॥
कहि कबीर सब झूठा भाई, केवल राम रह्यो ल्यौ लाई॥295॥
धन धंधा ब्यौहार सब, मिथ्याबाद।
पाँणीं नीर हलूर ज्यूँ, हरि नाँव बिना अपवाद॥टेक॥
इक राम नाम निज साचा, चित चेति चतुर घट काचा।
इस भरमि न भूलसि भोली, विधना की गति है ओली॥
जीवते कूँ मारन धावै, मरते को बेरि जिआवै।
जाकै हुँहि जम से बैरी, सो क्यूँ न सोवै नींद घनेरी॥
जिहि जागत नींद उपावै तिहि सोवत क्यूँ न जगावै॥
जलजंतु न देखिसि प्रानी, सब दीसै झूठ निदानी॥
तन देवल ज्यूँ धज आछै, पड़ियां पछितावै पाछै॥
जीवत ही कछू कीजै, हरि राम रसाइन पीजै॥
राम नाम निज सार है, माया लागि न खोई॥
अंति कालि सिर पोटली, ले जात न देख्या कोई॥
काहू के संगि न राखी, दीसै बीसल की साखी॥
जब हंस पवन ल्यौ खेलै, पसरो हाटिक जब मेलै॥
मानिष जनम अवतारा, तां ह्नैहै बारंबारा॥
कबहूँ ह्नै किसा बिहाँनाँ, तब पंखी जेम उड़ानाँ॥
सब आप आप कूँ जाई, को काहू मिलै न भाई॥
मूरिख मनिखा जनम गँवाया, बर कौडी ज्यूँ डहकाया॥
जिहि तन धन जगत भुलाया, जग राख्यो परहरि माया॥
जल अंजुरी जीवन जैसा, ताका है किसा भरोसा।
कहै कबीर जग धंधा, काहे न चेतहु अंधा॥296॥
रे चित चेति च्यंति लै ताही, जा च्यंतत आपा पर नाँही॥टेक॥
हरि हिरदै एक ग्याँन उपाया, ताथैं छूटि गई सब माया॥
जहाँ नाँद न ब्यंद दिवस नहीं राती, नहीं नरनारि नहीं कुल जाती॥
कहै कबीर सरब सुख दाता, अविगत अलख अभेद बिधाता॥297॥
सरवर तटि हंसणी तिसाई जुगति बिनाँ हरि जल पिया न जाई॥टेक॥
पीया चाहे तौ लै खग सारी, उड़ि न सकै दोऊ पर भारी॥
कुँभ लीयै ठाढ़ी पनिहारी, गुण बिन नींर भरै कैसे नारीं॥
कहै कबीर गुर एक बुधि बताई, सहज सुभाइ मिलै राम राई॥298॥
भरथरी भूप भंया बैरागी।
बिरह बियोग बनि बनि ढूँढै, वाकी सूरति साहिब सौं लागी॥टेक॥
हसती घोड़ा गाँव गढ़ गूडर, कनडापा इक आगी।
जोगी हूवा जाँणि जग जाता, सहर उजीणीं त्यागी॥
छत्रा सिघासण चवर ढुलंता, राग रंग बहु आगी॥
सेज रमैणी रंभा होती, तासौं प्रीत न लागी॥
सूर बीर गाढ़ा पग रोप्या, इह बिधि माया त्यागी॥
सब सुख छाड़ि भज्या इक साहिब, गुरु गोरख ल्यौ लागी।
मनसा बाचा हरि हरि भाखै, ग्रंधप सुत बड़ भागी।
कहै कबीर कुदर भजि करता, अमर भणे अणरागी॥299॥
टिप्पणी: ख-प्रति में यह पद नहीं है।