रामाज्ञा प्रश्न / तृतीय सर्ग / सप्तक ३ / तुलसीदास
मायामृग पहिचानि प्रभु चले सीय रुचि जानि।
बंचक चोर प्रपंच कृत सगुन कहब हित मानि॥१॥
मायासे बने हुए उस मृगको पहिचान लेनेपर भी (कि यह राक्षसे है) श्रीजानकीजीकी इच्छा जानकर प्रभु (उसे मारने) चले। मैं कहूँग कि ठग, चोर तथा पाखण्डियोंके लिये इस शकुनको हितकर समझो॥१॥
सीय हरन अवसर सगुन भय संसय संताप।
नारि काज हित निपट गत प्रगट पराभव पाप॥२॥
सीता-हरणके समयका यह शकुन भय, सन्देह और दुःख बतलाता है। स्त्रियोंकी भलाई-सम्बन्धी कार्य पूर्णतः नष्ट हो जायँगे और पराजय तथा पाप प्रकट (प्रसिद्ध) होंगे॥२॥
गीधराज रावन समर घायल बीर बिराज।
सूर सुजसु संग्राम महि मरन सुसाहिब काज॥३॥
वीर गृध्रराज जटायु रावणसे युद्ध करके घायल पडे़ अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं। (यह शकुन कहता हैं कि संग्रामभूमिमें वीर सुयश पायेंगे, श्रेष्ठ स्वामीके लिये उनकी मृत्यु होगी॥३॥
राम लखनु बन बन बिकल फिरत सीय सुधि लेत।
सूचत सगुन बिषादु बड़ असुभ अरिष्ट अचेत॥४॥
श्रीराम लक्ष्मण व्याकुल होकर वन वन सीताजीका पता लगाते घूमते हैं। यह शकुन भारी शोक, अशुभ और व्याकुल कर देनेवाले अमंगलको सूचित करता है॥४॥
रघुबर बिकल बिहंग लखि सो बिलोकि दोउ बीर।
सिय सुधि कहि सिय राम कहि तजी देह मतिधीर॥५॥
श्रीरघुनाथजी पक्षी (जटायु) को देखकर व्याकुल हो गये। उस (जटायु) न दोनों भाइयोंको देखा, उनसे श्रीजानकीका समाचार कहा और उस धीरबुद्धिने 'श्रीसीता-राम' कहकर शरीर छोड़ दिया॥५॥
(प्रश्ने-फल अशुभ है।)
दसरथ ते दसगुन भगति सहित तासु करि काज।
सोचत बंधु समेत प्रभु कृपासिंधु रघुराज॥६॥
महाराज दशरथजीसे भी दसगुनी भक्तिपूर्वक उस (गृध्रराज) का अन्त्येष्टि कर्म करके कृपासागर प्रभु श्रीरघुनाथजी भाई (लक्ष्मण) के साथ शोक कर रहे हैं॥६॥
(प्रश्न -फल शोकसूचक है।)
तुलसी सहित सनेह नित सुमिरहु सीताराम।
सगुन सुमंगल सुभ सदा आदि मध्य परिनाम॥७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि नित्य प्रेमपूर्वक श्रीसीतारामका स्मरण करो। यह शकुन शुभ है; प्रारम्भ मध्य तथा अन्तमें सदा मंगल होगा॥७॥