रामाज्ञा प्रश्न / तृतीय सर्ग / सप्तक २ / तुलसीदास
सुभट सहस चौदह सहित भाइ काल बस जानि।
सूपनखा लंकहि चली असुभ अमंगल खानि॥१॥
चौदह सहस्त्र उच्च कोटिके योद्धा राक्षसोंसहित भाइयों ( खर-दूषण ) को कालवश हुआ ( मरा ) जानकर अशुभ और अमंगलोंकी खान शूर्पणखा लंकाके लिये प्रस्थित हुई॥१॥
(प्रश्न-फल अशुभ है।)
बसन सकल सोनित समल, बिकट बदन गत गात।
रोवति रावन की सभाँ, तात मात हा भ्रात॥२॥
उस (शूर्पणखा) के सब वस्त्र रक्तसे लथपथ हैं, भयंकर मुख है और अंग ( नाक-कान ) कटे हैं। रावणकी सभामें वह 'हाय बाप! हाय मैया! हाय भैया !'कहकर रो रही है॥२॥
प्रश्नर-फल अशुभ है। )
काल कि मुरति कालिका कालराति बिकराल।
बिनु पहिचाने लंकपति सभा सभय तेहि काल॥३॥
कालकी मूर्ति, कालिका अथवा कालरात्रिके समान भयंकर उसे ( शूर्पणखाको ) पहिचान न सकनेके कारण उस समय रावणकी सभाके लोग भयभीत हो गये॥३॥
(प्रश्न-फल अनिष्ट है।)
सूपनखा सब भाँति गत असुभ अमंगल मूल।
समय साढ़साती सरिस नृपहि प्रजहि प्रतिकूल॥४॥
शनैश्चरकी साढे़ सात वर्षकी दशाके समान सब प्रकारसे अशुभ और अमंगलकी जड़ शूर्पणखा राजा रावण तथा उसकी प्रजाके लिये प्रतिकूल ( विपत्ति लानेवाली ) बनकर ( लंका ) पहूँची॥४॥
(प्रश्न-फल राजा-प्रजा सबके लिये अनिष्टसूचक है। )
बरबस गवनत रावनहि असगुन भए अपार।
नीचु गनत नहिं मीचु बस मिलि मारीच बिचार॥५॥
हठपूर्वक ( पत्र्चवटीकी ओर ) जाते समय रावणको अपार ( बहुत अधिक ) अपशकुन हुए; किंतु मृत्युवश हुआ वह नीच उनको गिनता ( समझता ) नहीं, मारीचसे मिलकर ( सीताहरणका ) विचार करता है॥५॥
(प्रश्न-फल अनिष्ट है। )
इत रावन उत राम कर मीचु जानि मारीच।
कनक कपट मृग बेस तब कीन्ह निसाचर नीच॥६॥
इधर रावण और उधर श्रीरामके हाथों दोनों ओर मृत्यु ( निश्चित ) समझकर नीच राक्षस मारीचने तब स्वर्णमृगका कपटमय रूप बनाया॥६॥
(प्रश्न-फल अशुभ है। )
पंचबटी बट बिटप तर सीता लखन समेत।
सोहत तुलसीदास प्रभु सकल सुमंगल देत॥७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि पंचवटीमें एक वटवृक्षके नीचे श्रीजानकीजी तथा लक्ष्मणजीके साथ प्रभु शोभित हैं, वे समस्त मंगल ( शुभ- फल ) प्रदान करते हैं॥७॥
(प्रश्न-फल शुभ है। )