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रामाज्ञा प्रश्न / तृतीय सर्ग / सप्तक १ / तुलसीदास

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दंडकबन पावन करन चरन सरोज प्रभाउ।
ऊसर जामहि, खल तरहिं, होइँ रंक तें राउ॥१॥
दण्डकवनको पवित्र करनेवाले ( श्रीरामके ) चरणकमलोंके प्रभावसे ऊसर भूमिमें भी अन्न उगने लगता है, दुर्जन भी ( संसार-सागरसे ) पार हो जाते हैं और ( (मनुष्य) दरिद्रसे राजा हो जाता है॥१॥
(प्रश्न-फल परम शुभ है। )

कपट रूप मन मलिन गइर सुपनखा प्रभु पास।
कुसगुन कठिन कुनारि कृत कलह कलुष उपहस॥२॥
मलिन मनवाली शूर्पणखा छलसे रूपवती बनकर प्रभुके समीप गयी। यह भारी अपशकुन है, दुष्ट नारीके कारण झगडा़, पाप तथा हँसी ( अकीर्ति ) होगी॥२॥

नाक कान बिनु बिकल भइह बिकट कराल कुरूप।
कुसगुन पाउ न देब मग, पग पग कंटक कूप॥३॥
( शूर्पणखा ) नाक - कानके ( काटे जानेसे उनके ) बिना व्याकुल हो गयी, उसका रूप अटपटा, भयंकर तथा भद्दा हो गया। यह अपशकुन है - ( यात्राके लिये ) मार्गमें पैर मत रखना, पद पदपर काँटे और कुएँ ( विघ्न बाधाएँ ) हैं॥३॥

खर दूषन देखी दुखित, चले साजि सब साज।
अनरथ असगुन अघ असुभ अनभल अखिल अकाज॥४॥
खर - दूषणने ( शूर्पणखाको ) दुःखी देखा तो ( सेनाका ) सब साज सजाकर चले। यह अपशकुन बुराइयों, पाप, अशुभ. अहित तथा सब प्रकारकी हानि बतलता है॥४॥

कटु कुठायँ करटा रटहिं, केंकरहिं फेरु कुभाँति।
नीच निसाचर मीच बस अनी मोह मद माति॥५॥
कौवे बुरे स्थानोंमें बैठे बार-बार कठोर ध्वनि करते हैं, श्रृगाल बुरी तरह रो रहे हैं, नीच राक्षसोंकी सेना मृत्युके वश होकर मोह तथा गर्वसे मतवाली हो रही है॥५॥
(शकुन अनिष्टसूचक है।)

राम रोष पावक प्रबल निसिचर सलभ समान।
लरत परत जरि जरि मरत, भए भसम जगु जान॥६॥
श्रीरामजीका क्रोध प्रज्वलित अग्निके समान है और राक्षस पंतगोंके समान हैं। लडा़ई करते हुए वे उस ( क्रोधाग्रि ) में पद़कर जल-जलकर मर रहे हैं। इस प्रकार वे भस्म हो गये, यह बात संसार जानता है॥६॥
(प्रश्न फल अशुभ है।)

सीता लखन समेत प्रभु सोहत तुलसीदास।
हरषत सुर बरषत सुमन सगुन सुमंगल बास॥७॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीराम श्रीजानकी और लक्ष्मणजीके साथ सुशोभित हैं। देवता प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा कर रहे हैं। यह शकुन सुमंगलका निवासरूप है॥७॥