शकुन्तला / अध्याय 4 / भाग 1 / दामोदर लालदास
भेल जखन उपगत नव यौवन दश दिशि बढ़ल प्रकाशे।
जनु तजि कें चुलि कनक-भुजंगिनि बारह भय अवभासे।।
शुक्ल-सुधाकर सम उन्नति-पथ धय यौवन-अभिरामा।
लोचन मनहर, कान्ति अनूपम तनिक रचल सुखधामा।।
अंग-अंगमे भरल अनंगक सँग-सँग रस-रंगे।
की तारुण्य-विकास मनोरम! दर्शनीय सभ अंगे।।
जँ समतार्थ ततय सौदामिनि अबितथि शोभाधामे।
लाजे झाँपि लितथि मुखमण्डल दबकि मेघमालामें।।
ततहु पुष्ट मुखमण्डल शोभा वेश अपूर्व अनूपे।
उपमे नहि विधि रचल, पड़य बुद्धि, से आनन अनुरूपे।।
शशि सकलंक, क्षीण, विष-सोदर बंक तथा सविकारे ।
कण्टक-जाल-पूर्ण अरविन्दो समता करइत हारे।।
सय सुधांशुसँ सार अंश छिनि लय मृग-मदक सुवासे।
विकच कमलसँ कोमलता लय, लय मणिगणक प्रकाशे।।
सज्जन शान्ति, कान्ति कनकक नव, लय कोकिलक सुवचना।
जनु सँसार-सर-सुख लय विधि कयलनि से मुख-रचना।।
कान्ति नवीन, पुष्टता अभिनव, नव यौवन मनहारी।
नव-तन, नव मन, नूतन मुसुकन, नव वाणी रस-धारी।।
भेल नवीन चलब, नव ताकव नव नागरिक अनूपे।
कारण? आसन ततहि लगौलनि अभिनव मनसिज भूपे।।
मन्मथ नृपक शुभागम होइतहिं शैशव-पतझड़ भेले।
अंग-अंग तारुण्यक नव पल्लवें हरित भय गेले।।
आनन पुष्ट प्रफुल्लित मनहर छवि रमणीय कपोलक।
दसनक पंक्ति-पंक्तिमे धमकल चमक मदन-अनमोलक।।
भृकुटिक ऊपर धनुष निज राखल मीनकेत सरियाक’।
दृग बढ़ाय मृगनयनि विरचि जनु राखल बाण पिजाक’।।
कटिक माटि किछु काटि-छाट वक्षस्थ-ऊपर चढ़ोओल।
तें अति क्षीण भेल कटि सुमुखिक केहरि-कटि निरमाओल।।
श्यामल स्निग्ध प्रलम्बित चिकुरक वेणी की मनहारी!
जे सौन्दर्य निरखि जा छपकलि विवर भुजंगिनि कारी।।
गतिक निहारि मत्तता मत मातंग लजा वन भागल।
मदिर मनोभवकेर प्रताप जनु, अंग अंगमे जागल।।
कंचन-कलश उरोज युगलहुँक की लालित्य बखानी।
एक मानु, मदनक सिंहासन अपर दिव्य रजधानी।।
ततहिं बैसि शासन, अनुशासन करथि मनोभाव-भूपे।
रस-रस आकर्षण-रस-भरि-भरि राखथि सुधा-स्वरूपे।।