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शकुन्तला / अध्याय 3 / भाग 2 / दामोदर लालदास

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से मधुरध्वनि-श्रवण हेतु हरिणा-हरिणी तँह ज्टय।
पड़ल पाजु करइत से ध्वनि-रस-सुख विनोद भरि लूटय।।
आश्रम-हरिण कोर मस्तक धय सुनय मधुर से वाणी।
थपथपबति पिठि स्नेह-दुलारें मुसुकथि से कल्याणी।।

धर्मपितासँ सुनथि अनुक्षण शास्त्र-पुराण-कहानी।
राजनीति, सामान्य नीति, इतिहास-कथामृत-वाणी।।
परमानन्दित होथि कण्वऋषि लखि बेटिक जिज्ञासा।
स्नेह-दुलार-भरल वाणीमें पूर्ति करथि शुभ आशा।।

फलद विपिन-द्रुम-सभसँ सीखल करब परक उपकारे।
सिखल सुशीतल मन्द पवनसँ मन्द-मन्द सँचारें।।
हंस, मीनसँ हेलब सीखल, खेलब मृग-मालासँ।
सीखल मधुर वयन कोकिल अति मधुर कण्ठ बालसँ।।

सुमन-भार-अवनता लतासँ सिखल नम्रता भारी।
गुणग्राहिता अलिमालासँ सीखल से सुकुमारी।।
सिखल विमल विकसल पंकजसँ मधुर-मधुर मुसुकाने।
अस्तु, सकल सद्गुण-समपन्ना सभविधि भेलि महाने।।

कन्द, मूल, फल, जल दय शीतल से आलस्य-विहीना।
सेवा, टहल करथि गुरुजनकेर प्रति-समेत नवीना।।
आगत-अभ्यागतक करैछलि स्वागत से पिकवयनी।
प्रेम-भावसँ सभकें देखथि से मृग-शावक-नयनी।।

परम उच्च मस्तिष्क तनिक छल उच्च समग्र विचारे।
श्रद्धा-स्नेह विनिर्मल उन्नत निर्मल सभ व्यवहारे।।
जे किछ कार्य हाथमे लैछलि से सौन्दर्यागारा।
सम्पादित अति शीघ्र करैछलि साहस स्नेहक द्वारा।।

जखन पहिरि कुसुमावलि-भूषण करथि मन्द सँचारें।
बुझिपड़ स्वयम् विपिन-देवी जनु तपवन करथि विहारे।।
जखन कतहुँ किछु बाजि उठैछलि मधुभाषिणी प्रवीणा।
श्रवण-सुधा-पुट ढारि उठय जनु झनकि मनोहर वीणा।।