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शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 16 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

हे अरुणाभ्र! अहाँसँ उपकृत
की नहि पाओल सर ओ कानन।
कानि कानि कहइत अछि सरसिज
गीत एक घर सटले क्रन्दन।।95।।

कए अनुमान उदय मधु बेला
पुनि मध्याह्न प्रताप समन्वय।
दिनकर जीवन महाकाव्यमे
लीखि रहल के अनितम अन्वय।।96।।

पालित पोषित हमसँ रक्षित
पुष्पित सुरभित वर्द्धित तरुगण।
महाभयंकरि निशा-कोरमे
पड़ि जाएत कतखेदित अलिगण।।97।।

करसँ माइक पाबि दूध सम
पीबि पीबि पोषक कत मधुगण।
देखि रहल से विधुरा माइक
मधुलिह दृगमे ओस नोर कण।।98।।

डूबइछ किरण शान्ति अछि डुबइत
खसइत सहसा मोदक साधन।
जग शिशुकरसँ छीनि रहल अछि
भरल मोदकक ललका वासन।।99।।

फाटल कोढ़ कण्ठसँ क्रन्दन
करइत पक्षी घुरिधर आयल।
“माँ! इजोत नहि देखि रहल छी“
कहइत प्रकृतिक कोर नुकाएल।।100।।