भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 15 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन दिवस भ्रमणसँ थाकल
पहुँचल नियति गगन पथ अविकल।
ताकि रहल छथि दिनकर, करके
समिटि सकल पौरुषके अनुपल।।89।।

बैसल एकसरि यमुना तटपर
देखि-देखि जल बुद्बुद् कलकल।
खिन्न मना भए अपन ताल पर
हसि हसि गबइत अछि के कलबल।।90।।

दिनकर ज्योति प्रभासँ प्रमुदित
जगुतक आँगन छल जे समुदित।
से की पसरल रश्मि गमाके
पाओत बाझल बिजुली अनुदित।।91।।

जनिक सहस्र किरण लए जल थल
बाट घाट दर्शन छल चलइत
सकुशल मानव तनमे रहितहुं
ताकत अन्ध दिशा दश कपइत।।92।।

दशमि दशामे पड़ल सेजपर
लुकझुक प्राण कण्ठमे अब तब।
अन्तिम सेज एक भए अरुणिम
अटकल प्राण वियोगक पललव।।93।।

छोड़ि विकल मानवके जाइत
ज्ञान सागरक बीच तपनके।
हिय अछि विकल अथिर अछि अन्तर
नमस्कार कर्मठक पतनके।।94।।