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शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 2 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'
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बीतल वर्ष कतेको सुखमय
आवि तुलाएल व्याधि।
जूड़ब रहितहुँ रुचए नहि
पचब छुटल तें आधि।।6।।
जरा-जीर्ण तन आविके
पाओल केवल ताप।
भोग-रोगवश नरक तन
पवइत अछि अनुताप।।7।।
देखि जगक गति योगिवर
शान्तनु कएल विचार।
देह छोड़ि थिक चलक झट
कर्मक जलांधक पार।।8।।
शान्ति-देविके हुलसिकें
आलिंगन नर-राय।
बदलि रूप् पहिलुक प्रिया,
धएलन्हि हुनकर काय।।9।।