Last modified on 27 फ़रवरी 2014, at 19:11

शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 2 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

बीतल वर्ष कतेको सुखमय
आवि तुलाएल व्याधि।
जूड़ब रहितहुँ रुचए नहि
पचब छुटल तें आधि।।6।।

जरा-जीर्ण तन आविके
पाओल केवल ताप।
भोग-रोगवश नरक तन
पवइत अछि अनुताप।।7।।

देखि जगक गति योगिवर
शान्तनु कएल विचार।
देह छोड़ि थिक चलक झट
कर्मक जलांधक पार।।8।।

शान्ति-देविके हुलसिकें
आलिंगन नर-राय।
बदलि रूप् पहिलुक प्रिया,
धएलन्हि हुनकर काय।।9।।