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शरशय्या / दोसर सर्ग / भाग 8 / बुद्धिधारी सिंह 'रमाकर'

“भाए अहँक दुइ तेज भुवनके
गेला शोति राखि।
वंशराज्य ई रहत कोनाके
वाक्य अहाँ कहु भाखि।।31।।

ग्रहण दूहू भावहु ओ सागर घरि
राज्यक ई विस्तार।
करु पत्पन्न प्रजा करु पालन
जूटल टूटल तार।।32।।

सतमाइक सुनि वचन हुनक जनु
गेलन्हि अन्तर काँपि।
कूचि जीभ बजलाह महाब्रत
कान हाथसँ झाँपि।।33।।

“हा हरि! हा हरि! ग्रहण करब की
अपनो उगिलल ग्रास।
कहथि बिमाता तदपि थोड़ नहि
पाएब हम उपहास।।34।।

क्षमा करू ओ बधू करथु ते
मुनिवर व्यास प्रसंग।
वंशक हेतुक राज्य-धम थिक
करब महानक संग“।।35।।